Friday 23 August 2013

बाबा

बाबा ,
दस साल की नौकरी के बाद आपको फोन किया था की मैं रिजाइन करना चाहती हूँ ,वापस आना चाहती हूँ ,याद है मुझे बाबा की जब मैं घर से निकली थी तब आपने कहा था की "क्या इसी दिन के लिए पढाया लिखाया था कि सब चूल्हे में झोंक दो ", आप मेरी इस नौकरी से खुश नहीं थे .
आपने कहा हम इस बारे में बाद में बात करेंगे फिलहाल तुम छुट्टी ले कर घर आ जाओ ,घर शब्द सुन कर कितना सुकून मिला था बाबा मुझे ,मैं अपना थोडा सा सामान ,कुछ ताने ,कुछ उल्हाने ,और कुछ फटी हुई यादें ले कर घर आ गई थी ,शायद अपनी सहूलियत के लिए भूल गई थी की सब कुछ हमेशा एक जैसा नहीं रहता .
सबने स्वागत किया था ,एक दिन माँ ने अकेले में धीरे से कहा --"भाई ने कहा है उससे कहिये थोडा एडजस्ट करना सीखे "अचानक ही भाई के साथ मिल कर कभी की हुई शैतानियाँ कंही छुप गई और मेरी मुस्कराहट थोड़ी सी और गहरी हो गई जब माँ ने कहा -नौकरी तो तुम्हे यंहा भी करनी पड़ेगी .माँ से कह नहीं पाई की बाबा ने तो घर बुलाया था
बाबा आपके घर के ,आपके परिवार के लोगों के चेहरे पर जगह की कमी की तकलीफ दिखने लगी थी ,अच्छा ही हुआ न बाबा की मैं रिजाइन करके नहीं आई थी .
मेरे वापस लौटने के फैसले पर किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ,आपने भी तो नहीं किया न कोई सवाल बाबा ,सबकी नज़रों में कितनी समझदार हो गई थी मैं ,सबने एक सुकून की सांस ली थी की अब सब कुछ पहले जैसा ही हो जायेगा ,हो गए सब अपने रोज़ के कामों में मस्त .
बाबा अब तो मैं भी समझदार हो गई हूँ ,जानती हूँ अब जब भी फोन करुँगी तो आप सब क्या सुनना चाहेंगे
"सब ठीक है बाबा ,हाँ खुश हूँ मैं इस नौकरी में "
कमाल का कमाल
दिखा रहे हैं
वो सारे जुगनू
जो रख गए हो
तुम
मेरी आँखों में !!

सात

देखना चाहती हूँ ,
सातों नदियों के जल
तुम्हारी आँखों में ,

जब पुकारो मुझे ,
महसूस करना चाहती हूँ,
सातों सुरों का सारांश
तुम्हारे स्वर में ,      

चाहती हूँ पार करना ,
सातो द्वीप ,सातो समुद्र ,
सातो लोक ,सातो आसमान ,
तुम्हारा हाथ थामे -थामे !
अपने ही परिजनों के साथ,
युध्भूमि में ,

विवश हूँ,
कवच और कुण्डल
ना दान करने के लिए
हैरान हूँ मैं ,
कितना हुनर है तुम में ,
खाली आँखों को
फिर से खाली कर गए
तुम!!!!!!

गंगा किनारे
सीडियों पे बैठ
एक दुसरे का हाथ थामे
सूर्योदय  देखना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
गलियों-गलियों चुप-चाप
उंगलियाँ छूते
कदम गिनते हुए
वापस लौटना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
कमरे में बिखरे पड़े
मेरे शब्दों को
उठाकर पन्नो में सहेजना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
सोचती हूँ ……
क्या ये सब
मुझे भी याद है!!!
हंसती हूँ ,मुस्कुराती हूँ,
कभी -कभी खीज भी जाती हूँ
व्यस्त रहने की कोशिश करती हूँ,
जीतती भी हूँ ,हारती भी हूँ,
और अब तो
अक्सर
ईश्वर से नाराज़ हो उठती हूँ,
सालो से तुम एक ही तो
दुआ
मांग रहे हो ,
क्यों नहीं वो तुम्हारी सुनता,
और
कर देता मुझे मुक्त!!
ना आभास ,ना ध्वनि, ना आकार,
ना मन का मेला है,
ना रंग ना सपने ,
ना कुछ चाहा है और
ना ही अनचाहा ,
ना ठंडी नदी बची है ,
और ना ही कोई
गर्म पानी का सोता है
निराकार हो गई हूँ
लगता है जैसे
तुम्हे पा लिया है
मैंने!!!
विवाह के बाद की
पहली रस्म,
तुम्हारी कलाई में बंधे
धागे में लगी
सात गांठों को
एक ही हाथ से खोलना था मुझे ,
वो रस्म अभी तक
पूरी नहीं हो पाई,
आज भी एक ही हाथ से
गांठें खोलने में
जुटी हुई हूँ!
एक सुबह तुमने जो कहा,
लगा
कुछ सोये हुए से कम्पन मेरे भीतर जाग गए,
कुछ आँखों में आकर थम गए
और
कुछ
 होठों पे आकर पथरा गए ,
हैरानी में घिरी कंही खोई सी,
तुम्हे देखती रही,
कुछ भाव लिपट से गए थे,
सारे के सारे ,
खारे समंदर जैसे थे!
तुम सिरज दोगे मन का चैन,
यकीन है हथेलियों से दुआ गिरेगी नहीं,
तुम्हारे हाथों में देने से पहले
ईश्वर को ना कहने का
मौका तो दूं!
कितने सारे खेल
शब्दों के
एक दुसरे को मात देते
हँसते-खिलखिलाते
आँखों से सरक,मुस्कुराहटों पर टिकते-फिसलते
व्यंग से बोझिल होते,कपडे झाड फिर खड़े होते
कितने सारे खेल शब्दों के
मेरे तुम्हारे बीच!!!!!!!!!!!!!!
चुपचाप बैठे-बैठे सांस लेना,
कितना आसान लगता है न,
काश,
आसान होता!

Thursday 22 August 2013

बीती रात कुछ अपने से लगे थे तुम,
मेरे सारे ख्वाब घुटने मोड़े,
बैठे थे पास तुम्हारे,
तुमने कुछ कहा नहीं,
अंजुली में भर आँखों से लगाया था,
मेरे सूखे होंठ गीले हो गए थे,
नन्हे से सपने को काँधे पे बिठा,
नंगे पाँव चले थे तुम,
साथ चलने के लिए ,
आवाज़ लगाती रुक सी
गई थी मैं,
देहरी पे खड़ी ,हाथ बढाया था
और तुमने मेरी लकीरों में
खिलखिलाहट भर दी थी
बीती रात कुछ अपने से लगे थे
तुम!!!!!!!!
कुछ सपने उधेड़े थे,
एक धागा तुमसे जा जुड़ा था,
कुछ उलझा कुछ सुलझा सा था
सारी उमीदें
बित्ते भर छोटी रह गई

तुम्हारे नाप से
आधी सांस ले
रोक लिया हाथों को
अब कभी कुछ भी
मुझे
नहीं बुनना !!
कुछ बुझते से ख्याल
गाँठ -पोटली ले
तुम्हारे शहर पहुंचे हैं
कंही कोई सराय हो
टिका देना!!!!
चारदीवारियों की महफूज़ हवा ,
उधार सी है
नर्म बिस्तर की नींद ,
उधार ही तो है
हर वो निवाला बामुश्किल
उतरता है जो हलक से
उधार का ही तो है
सुनती हूँ चुप-चाप ,
घुटने पे ठुड्डी रखे,
--------- ब्याहता हो !

खुदाया ,सौगंध तुझे
उन नज्मों की
निकली हैं जो मेरे ज़ख्मो से,
तेरे घर आऊं उससे पहले ,
सारा उधार उतार देना !!!!!!      

मन

आज सोचा, आज तो जरुर कुछ लिख कर ही दम लेंगे, बड़ी तैयारी के साथ, सबको कमरे से बाहर निकाल, कलम-कागज़ ले कर बैठे, लिखना शुरू ही किया था की ये क्या सारे शब्द तो कबूतर बन फुर्र से उड़ गए,  हम पीछे भागे भी ,  लेकिन ये कोई वो मामूली से कबूतर थोड़े ही न थे ये तो सुर्ख सफ़ेद थे जो उड़ जाए तो लाख टटोलो मज़ाल है की आसमान में दिख जाये .
                                                     दुपट्टे को उँगलियों पे लपेटा,  सर पे रखा, आईने के सामने उल-जलूल शक्लें भी बनाई , कमरे की हर चीज़ को गौर से देखा , कमबख्त कंही कोई ख्याल छुपा हो, सोचा चाय ही  पी ली जाए, उंहु , अब ख्याल हमारे सिरफिरे दोस्त तो हैं नहीं चाय की महक से ताबड़तोड़ कमरे में घुसते चले आयेंगे।

           सोच ही रहे थे की लिखने के लिए ख्यालों को कहाँ टटोले कि तभी  ………     ये लो बारिश को भी अभी ही आना था ,अब ख्याल आयेंगे भी तो भीगे हुए ,  हद्द है , कोई भी तो नहीं चाहता की हम अपने आप को पन्नो पे उतारे ,  सोचा किवाड़ खोल देते हैं (हम सोचते बहुत हैं ना ) , ठंडी हवा , बूंदे, उफ़ , माहौल रूमानी हो जाए तो कुछ लिख ही डाले , छज्जे पे पहुँचते ही बूंदों ने कुछ सराबोर से लम्हे , सड़कों पे दौड़ते कुछ पल , अनसुनी-अनकही लाखों बातें ज़हन में ऐसी ताज़ा की, की हम लाख मन को तागो में बाँधते रहे , उसे डपटते रहे लेकिन वो तो उनके पीछे दौड़ पड़ा , कभी सुनी है उसने हमारी जो अब सुनता , हम लट्ठ ले के पीछे भागे भी लेकिन हमारा मन तो न जाने किस खोह, किस कन्दरा में छुप कर बैठ गया है , हम भी इस इंतज़ार में हैं की कभी तो वापस आएगा।।            

Wednesday 21 August 2013

निर्जन मन,
एकांतवास,
अंतिम सस्कार,
तुम्हे विदा करने का दुःख,
खाली हथेलियों से तुम्हारे फूल चुनती
हंसु या रोऊँ ,
लम्बी प्रतीक्षा की थी तुमने ,
अपनी मुक्ति की ,
इस श्राप से!!!   
एक लफ्ज़ से परिचय हमेशा आधा -अधुरा ही रहा,
और अब तो कोई कैफियत ही नहीं,
अक्सर बगल में आ बैठता है,
कभी हैरानी हुआ करती थी ,
अब वो
अपनी पहचान देने में
और मैं खुद में
मशगूल रहती हूँ !!!!!!!!!!

चिट्ठी और जामुन

जरा सा ऊँघने की कोशिश क्या की , लगा कहीं ढोल -नगाड़े बज रहे हैं ,होशो -हवास  दुरुस्त करने में थोडा सा वक़्त क्या जाया किया शोर बढ़ता ही गया ,समझ आया की दरवाज़े की घंटी जोर - शोर से किसी के आने की इत्तिला दे रही है ,भुनभुनाते हुए उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखते ही मुँह से निकला -
                                                                                                              हे भगवन ! अभी हम इतने भी बुड्ढे ना हुए की हमारे दिमाग का फितूर हमारी आँखों के सामने दिखने लगे ,
                                                                                          सामने था postman , POSTMAN ? , हमने अपनी उँगलियों को अच्छा - खासा कष्ट दे कर आँखों को मला ,मन तो किया daily soaps की तरह तीन बार दरवाजा खोले तो शायद हमें ठीक -ठीक दिखाई देने लगे , हमने उन्हें नीचे से ऊपर तक घूरा और उन्होंने हमें सर से पाँव तक , नज़रों से एक दुसरे को तौलना खत्म ना होते देखकर हमने हाथ के इशारे से ही पूछा -
                                                                                                                                                  क्या है ?
उनको देखने के सदमे से अभी तक उबरे भी नहीं थे की उन्होंने पान चुगलाते हुए अपने थैले में से एक लिफाफा निकाला और पान की पीक थूकने के लिए अगल - बगल निगाह दौडाते हुए कहा -
                                                                           चिट्ठी है !
हैंsss चिट्ठी ? अगर मनमोहन सिंह बोल पड़ते तो भी हमें इतना आश्चर्य न होता जितना चिट्ठी सुन कर हुआ , सोचा - कौन निगोड़ा है जो इस इ-मेल के जमाने में हमें चिट्ठी लिखने की जहमत उठा रहा है।
                                                                                                                           खैर ,कुछ भी कहो , वो नीला - नीला सा लिफाफा हमारी हथेलियों को गरमाई और दिल को सुकून से भर गया , postman को विदा कर हमने लिफ़ाफ़े को अल्टा - पल्टा , भेजने वाले का नाम देखकर तो मन बल्लियों उछलने लगा ,ये हमारे उन छोटे से चचेरे भाई की थी जिनके एक लफ्ज़ "गिल्ली -डंडा " ने आठ खोपड़ियाँ एक साथ अपनी तरफ घुमा ली थी और आठ जोड़ी आँखें अपने कोटर में से बाहर बस चल ही पड़ी थी।
                                                                                   हुआ कुछ यूँ था की हम चचेरे -तयेरे भाई बहन मिल कर पूरे नौ थे और सब आस - पास की ही उम्र के थे ,साथ शैतानियाँ करते साथ ही सोते ,एक बड़ा सा पलंग था ,जगह के लिए क्या धींगामस्ती हुआ करती थी और अगर कहीं से बुआ कमरे में आ जाती तो ना जाने कहाँ से पलंग पे इतनी जगह आ जाया करती थी की नौ और सो जाए , हम हैरानी से पलंग को घूरा करते थे। बुआ थी ही ऐसी  ही उन्हें देखते ही हमें बड़े अजीब-अजीब से ख्याल घेर लिया करते थे।
                                       जैसे कि  जामुन , आपने कभी किसी को जामुन खाते देखा है ,आप कितना भी कह लो हम आपसे शर्त लगा सकते हैं की नहीं देखा होगा . वो एक कटोरे में काले -काले मोटे नगीने से ,देख भाल कर गोल - गोल घुमाते हुए उन्हें उठाना ,फिर धप से नमक में घुसाना और लो वो गया गप से मुहँ में।
हम सारे बुआ की बड़ी - बड़ी अंगूठियों और कत्थे से लाल हुई उँगलियों के बीच बेचारे- सहमे से जामुन पे निगाह जमाये रखते , जामुन बुआ उठाती और मुहँ हमारे खुलते ,जैसे ही वो निरीह सा जामुन बुआ के मुहँ में अलोप होता हम सबके दिमाग लगते दौड़ने - बैडमिंटन , नहीं , नहीं , टेनिस ,
                                                                                        उधर जामुन एक गाल से दुसरे गाल की सैर करता और इधर हमारी आँखें। अचानक किसी कोने से आवाज़ आई "गिल्ली - डंडा " हैं ssssssss … सुनते ही हम सारो की खोपड़ीया आवाज़ की दिशा में घूम गई वो भी इतनी तेजी से कि आज तक वापस घुमाने में किर -किर की आवाज़ आती है ,आठ जोड़ी आँखों ने घूरा ,अगर आँखों से कत्ल मुमकिन होता तो आज हम सारे भाई - बहन पता नहीं कहाँ होते ,उहं छोड़ो परे ,परदे के पीछे से झाँकती आधी आँख से बाद में निपटेंगे ,बुआ पे वापस ध्यान लगाया।
                                 चटखारे के साथ गुठली  बाहर निकले उससे पहले हम भाई - बहनों की शर्त लग जाती की कितनी दूर गिरेगी ,गुठली की दूरी नापने के चक्कर में हमारी तो जायदाद ही लुट गई वरना सच्ची आज करोड़पति तो जरुर ही होते।
                             हम भी क्या किस्सा ले कर बैठ गए ,अब इस उमर में यादों को जिंदा करने के सिवाय कुछ और है भी नहीं , हम तो खाली हैं, आप लोग क्यूँ मजमा लगाये बैठे है , चलिए उठिए, किस्सा सुन लिया न अब जरा हमें चिट्ठी पढने दीजिये ,
और सुनिए ,
अब ये न पूछियेगा की चिट्ठी में लिखा क्या था .
ना रंग , ना पहचान , ना छाप
कुछ नहीं बदलते
वैसे के वैसे गमकते हुए
सामने आ खड़े होते हैं
ये बेशर्म से रात और दिन !!!

Monday 19 August 2013

काफी बदल गई हो तुम,
पहले जब भी आतीं थीं
तो
मेरे हर हिस्से में जम कर बैठ जातीं थीं                            
अब तो
कभी-कभी
एक कोने में
हिल -डुल कर
अपने होने का अहसास

कराती हो
तुम्हे अक्सर तलाशती हूँ
पुराने खतों में
सहेजे हुए लम्हों में
आती कम हो
फिर भी मुझे तुम
अब भी
उतनी ही प्रिय हो
हो तो तुम वही न
मेरी पुरानी
हंसी!!!!!!!!!!!!!