Saturday 28 June 2014

पुरातत्ववेत्ताओं  के औज़ार लिए ,
वो  सुकून और धीरज से
उधेड़ती है धरती की एक एक परत
उसे मिलती हैं
चिड़िया की एक आवाज़
आधा पीला-हरा एक पत्ता
जिसे किसी ने सहेज  दिया था कोरा ही
और कुछ कुफ्र की बातें
कुछ  दिल से लगाने लायक झूठ
 बेरंग से सच भी मिले थे कुछ परतों में उंघते हुए
उन्हें फूंक मार सहेजती है एक किनारे ,
लौटने के रास्तों से पीठ फेरे
आँखें नर्म रखती है
हथेलियों की ओट में
पहुँच जाती है जमीन के आखिरी कोने तक
उस एक शब्द की खोज में ,

और

बस उसे वो एक लफ्ज़ ही नहीं मिलता
जो पड़ा रहता है बेमानी सा
तुम्हारे कुरते की बाई जेब में .

Monday 23 June 2014



पेड़ो की फुनगी पर उगती है नागफनी


और


जहाँ लफ्ज़ खेलते हैं आँख मिचौली,


सफ़ेद कमल खिला करते हैं जहाँ


और


कनेर पे हमेशा ही होती हैं पीली कलियाँ,


जहाँ


उम्मीदों की बेल दस्तक देती है किस्से कहानियों के दरवाज़े पर


और


सपने कभी चौखट नहीं लांघते आँखों की,


उस दुनिया की एक आवाज़ झांकती है आकाश गंगा


की दरारों से,


जब लगी हों लकीरों में ही गिरहे


तो सब कुछ


रौशनाई नहीं


स्याही से लिखे


शब्द भर रह जाते हैं

Friday 20 June 2014

तारों के ठन्डे होने वाले दिन ,
उतरी धूप के साथ,
सपनो को बटोर
लौटना होता है
बंद खिडकियों
और
थक कर बैठी हवा के बीच ,
जल उठते हैं
अनगिनत सूरज
जब
डबडबाते पैरों के निशान
गुम जाते हैं आहिस्ता ,

तय कर दिया है
ख़ामोशी की गहराई को
हमेशा के लगाव का पैमाना !

मन के ये अहसास जो शब्दों में ढल  कविता का रूप नहीं ले पाते फिर भी अधूरे से नहीं लगते



नीम के झड़ते हुए फूलों के दिन
सोती-जागती अबूझी
ख्वाहिशों के साथ
वक़्त की फांक पर
मिलना कहाँ हो पाता है


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 पूरी हो चुकने के बाद भी अधूरी रह जाने वाली एक ख्वाहिश

तुम्हारा हाथ थामे चलना सिर्फ चलना




 चाहती हूँ, मेरे हर शब्द में से तुम्हारी महक आये, काश, मेरा सारा चाहा , मेरा अनचाहा हो जाए



 रख छोड़े हैं कुछ अनखुले से शब्द
बंद मुट्ठी में,
आँखें बंद करू तो
फूंक मार
इन्द्रधनुष फैला दो हथेलियों पर



लेकिन तुम भी क्या करोगे ------ तुम तुम हो।



 हथेलियों पर उगी हैं उम्मीदें

तुम्हारे शहर से बारिशों का वादा था.




 मन इतना खाली नहीं होता अगर ज़िन्दगी जीने की ख्वाहिश तराजू में रखी नहीं मिलती...



 जिसे अवचेतन में याद किया वही याद लौट लौट आई चेतन में
लेकिन
एकाकी यात्रा के यात्री ने नहीं माँगा कोई हिसाब याद और आवाज़ से





उँगली पकड़ उसने पहला जो शब्द महसूस करना सिखाया वो था --तन्हाई

अब ?





 और कुछ नहीं
प्रेम में होने के अहसास से प्रेम है मुझे





 गिरते , सूखे पत्तो पर श्रांत पडा
यकीन भी बेलिबास हो चला है

तुम्हारे शब्द चाहिए

Thursday 19 June 2014

गीले आसमान पे चलते हुए
गहरे कहीं अटक गई थी एक याद,
बाँह पर रखा बोसा भी तो
चुभा था
करवट लेते हुए,
सुख की सांस ले उँगलियों ने बो दिए थे
सिरहाने
गुलमोहर के पीले फूल,
ठुड्डी के तिल को अंगूठे से दबा
बादामी रंगत वाली रात
एक सुर्ख नज़्म की ओक़ से
यादों ने भिगो लिया था
खुद को

तुम्हारा होना जरुरी तो नहीं था न!!

Tuesday 10 June 2014

दौड़ते-सरकते लम्हे
जब
कुरेदें
पावँ के अंगूठे को
तो
उन्हें उठा कर टाँग पाऊं ,

गीली सी उंगलियाँ
उलझा कर
निशान लगा सकूँ ...
सिर्फ
दो रंग के ,

पीठ टिका
जब
काँधे ढीले करूँ
तो
न बैठे
परछाई कोई बगल में,

न कच्ची न पक्की
न आधी न पूरी
बिना किसी शर्त के तार से पगी ऐसी
दीवार हो जाना

तुम !

Sunday 8 June 2014

बेहद गहरे ख्यालों में ,
खामोश मुसकराहट में,
कड़वे आंसू में,
तुमसे दूर जाती
सड़क के,
दूसरे किनारे पर पड़े भँवर में ,
होंठों पर रखे अनकहे जवाबों में ,

ज़िन्दगी ! कहाँ हूँ मैं तुझमे