Saturday 29 November 2014


 https://www.youtube.com/watch?v=4zTFzMPWGLs&spfreload=10





इस उदास आवाज़ को सुन तुम्हारे गले के पास गहरी साँस लेते हुए तुम्हे और और कस कर पकड़ लेती हूँ तब तुम बेतरह याद आते हो.







इस उदास गीत के साए में तुम मुझे कंधो से पकड़ खुद में समेट लेते हो और तब तुम याद आते हो बेहिसाब.










एक ठंडी सुबह रेलवे स्टेशन की सबसे आखिरी सीढ़ी के पास सारी शैतानियाँ भूल खड़ी हूँ . जाने तुम्हे लेने आई हूँ या विदा करने. तुम्हारे ऊपर चढ़ते कदमों की आवाज़ नहीं आती न ही तुम्हारी पीठ दिखाई देती है. तारीख़ बरस दर बरस वही रहती है बस अपनी नियत जगह पर नहीं होती. लेकिन न तो मुझे तुम्हारे जाते हुए कदम दिखते है और न ही सीढ़ियों से उतरता पास आता चेहरा और तुम मुझे अधिक याद आते हो .










तुम्हारे शब्द, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारी मुस्कराहट, तुम्हारा स्पर्श, कुछ भी तो याद नहीं बस तुम याद रह गए हो. मेरी याद का हर टुकड़ा छीज़ गया है .तुम्हारा हाथ पकड़ धीमे चलते हुए बरसाती का दरवाज़ा खोलती हूँ और तुम्हे देख पाती हूँ मोमबत्ती की रौशनी में बैठे हुए , तक रहे होते हो मेरा रास्ता छत के किनारे से टप- टप गिरती पानी की एक धार में . रंगीन कांच से उन छनकती बूंदों को देखते हुए तुम बहुत याद आते हो.










तुम्हारी किताबें समेटती हूँ तो अपनी गोदी में रखी किताब तुम मेरे हाथों में रख देते हो. मोमबत्ती उठा के मेरे चेहरे के एकदम पास ले आते हो, जूड़्रा फिसलते हुए खुलने लगता है और तुम अपनी शॉल में मुझे लपेट लेते हो. मुट्ठियों में पकड़ी उस काली शॉल में बेतरह याद आते हो तुम.







हमेशा ऐसे ही रहना







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Friday 28 November 2014


बीते हुए सालों की धसका सी एक याद







तुम्हारी तरफ कॉफ़ी का मग बढाती हूँ और तुम बिना किताब पर से निगाह हटाये हाथ आगे बढ़ा देते हो । मैं मुस्कराहट होंठों में दबाये दो कदम पीछे हट जाती हूँ। हवा में तलाशते तुम्हारे हाथ से जब कुछ नहीं छूता तब तुम्हारी नज़रें उठ जाती हैं मेरी आवाज़ के पीछे पीछे। मेरे चेहरे पे मुस्कराहट देख तुम झल्ला जाते हो, मुझे अपनी पहुँच में ना पा कर या मुझे देखने के लिए तुम्हे अपनी नज़रें उठानी पड़ी इसलिए।

तुम्हे भी आदत है और मुझे भी बिना एक दूसरे की आँखों की ज़द में आये एक दूसरे को देखने की।

आज जब उठ आई हूँ तुम्हारे पास से तब ये अहसास हुआ कि हम कभी अगल बगल क्यों नहीं बैठते .




ज्यादा रुचता है हमें एक दूजे केे सामने बैठ कर एक दूजे को पढ़ना।



तुम यूँ ही रहना हमेशा .
सारी दुआओं को ताबीज़ में बाँध
माथे पर भभूत मल
बैठी है वो आखिरी द्वार पर
बिसात बिछा
दाँव पर है
उसके सारे भ्रम
और उनसे मिलते जुलते यकीन
गिरते हर पासे  पर
ईश्वर की मुस्कराहट देख
रख लिया है उसने
ख़्वाबों को आँखों से निकाल
सोच में
अटका लिए  हैं कहकहे हलक में
अंगूठे की पीठ पर उलझी रेखाओं में
एक नाम
सुलझाने की
चाहना के साथ।
शब्दों में बोलते हो तुम
ठहाके बगल में रख हँसते हो
कैसे जीते हो तुम
सुबह की चाय
गूँद की छावँ में
एक दूसरे को पढ़ते हुए
आओ
जीना सीखते हैं
पढ़ो एक दुआ
आज
मेरे हक़ में
कि
"कभी कुछ न बदले"
यूँ हीं मेरी चिट्ठियां गीली स्याही लिए अपना रंग खोती रहें,
आवाज़ें खँगालती  रहे तुम्हारे पदचिन्हों से बनी दिशाएं,
न पूरा न अधूरा
कोई लम्हा न बटें कभी दो हिस्सों में,
" कभी कुछ ना बदले"
दो अलग शहरों में बसे
एक ही रस्ते पर खड़े हो
कहें
भूली हुई ज़बान में
साथ-साथ
आमीन !!!


सीधी सड़क से गुजरते एक मोड़ पर खड़ी हूँ

तुम्हे तलाशते तुम्हारे शहर पहुंची हूँ

किस राह जाऊं ?

इस शहर के बीत चुके मुस्कुराते नजारे,

सामने खड़े हैं

सीधी नीरव राह से गुजरता

पुल से उतरता

कभी मेरा रहा शहर

अब जो तुम्हारा है सिर्फ

मेरे साथ-साथ ये भी

काफी बदल सा गया है
तुम्हे याद न करने की सारी जुगत लगाती हूँ
बेतरह हँसती हूँ इधर-उधर से इक्कठे किये छोटे छोटे टुकड़ों पर

इक्कड़ दुक्कड़ खेलती हूँ
एक टांग पर कूदते हुए
शायद किसी जादू से
जिस अगले खाने में पहुँचूँ वो तुम्हारा मन हो

एक आँख मीच कंचे पर जब लगाऊँ निशाना
तो वो उछलता हुआ जा लगे 
धूप सेंकती तुम्हारी पीठ पर
और
तुम ना चाहते हुए भी मेरी तरफ किसी जादू के जोर से घूम जाओ

जादू होने की उम्मीद होना अच्छी बात है
एक दिन सब ठीक हो जायेगा इस उम्मीद की उम्मीद होना भी अच्छी बात है

सारे जादूगर निकालते हैं कान से पकड़ खरगोश को टोपी से
उस खरगोश को वापस टोपी में ग़ुम करना सिर्फ तुम्हे आता है।

Monday 10 November 2014



तुम्हारी आकाशगंगा से परे

उस एक अकेले तारे का टिमटिमाना

क्या बाँध पाता है तुम्हारी नज़रों को

जब टूट कर गिरे वो

तो

मांग लेना एक ख्वाहिश

पढ़ना दुआ

और

पीठ फेर खड़े हो जाना।


आमीन।













Saturday 8 November 2014



जब तुम्हे दोराहे पर पा ठिठक जाऊँ,

जाता देखूँ जब तुम्हे किसी राह

तब भी,

तुम्हारी पीठ पर रक्खी आँखों में

सुकून भर पाऊँ,

जब पलकें हों खामोश

और होंठों पर ज़िंदा न हो कोई कम्पन,

तो समझना

तुम्हारी आत्मा की धड़कन में

साबुत बची हूँ मैं।


मोहब्बत में डूबी

आँखों को रंग देने

किसी अजाने काल में

फूट था एक ज्वालामुखी,

मारू ने रक्खी थी कुछ नसीहतें

हथेली पर,

हीर ने कच्ची मिटटी से बना

बाँधा था ताबीज़ तुम्हारे गले में,

आज इस वक़्त

उस ताबीज़ को चूमते हुए
चाहना है
पीठ मिला खड़े
इकलौते और अंतिम सच को एक करने की।


जब

कह उठती हूँ

कि

कोई आहट हो की पलकें झपकें और

सूख जाएँ आँखें

तो

तुम अपनी रेखाओं में लिख लेते हो

मेरा इंतज़ार,

जब लिखती हूँ

स्वयं की खोज में पहुंची हूँ तुम तक
तो
बाँहों में भर लेते हो
मेरे इस तय किये हुए फासले को,
तानो उलाहनों की बंदिश में पगी
बेसब्री और इंतज़ार भरी
पुकार सुन
बिना मुड़े
समझ लेते हो मेरा प्रेम
जानती हूँ मैं।

Monday 3 November 2014


अक्षरों को जीती
थम गई थी उंगलियाँ,
और
औचक निगाहों से देखा था तुमने,
दरवाज़े पर खड़े हो कर
गलियारे में घूमती अपने नाम की पुकार को,
कॉफ़ी का मग हाथों से ले
घूँट-घूँट पीते हुए मुस्कराहट
तुमे सांस-सांस कहा था
सुबह-ए-बनारस!

इस याद का एक टुकड़ा भर लिया है बाहों में,
जब कभी आओ
और
चाहो बंद पड़े किवाड़ खोलना,
तो
गढ़ लेना एक चाबी,
उसी याद का एक टुकड़ा बिठा आई हूँ,
जब लगोगे उसके गले
तो, इसी दुनिया के दो छोरों पर,
आधी-आधी मुस्कान जीते दो लोग
हँस पड़ेंगे।

( फोटो उस घर के एक हिस्से की है जहाँ अभी सिर्फ मैं हूँ , यकीनन कुछ दिनों बाद तुम भी होओगे)

Photo: अक्षरों को जीती
थम गई थी उंगलियाँ,
और 
औचक निगाहों से देखा था तुमने,
दरवाज़े पर खड़े हो कर
गलियारे में घूमती अपने नाम की पुकार को,
कॉफ़ी का मग हाथों से ले
घूँट-घूँट पीते हुए मुस्कराहट
तुमे सांस-सांस कहा था
सुबह-ए-बनारस!

इस याद का एक टुकड़ा भर लिया है बाहों में ताला लगाते हुए,
जब कभी आओ 
और
चाहो बंद पड़े किवाड़ खोलना,
तो
गढ़ लेना एक चाबी,
उसी याद का एक टुकड़ा बिठा आई हूँ,
जब लगोगे उसके गले
तो, इसी दुनिया के दो छोरों पर,
आधी-आधी मुस्कान जीते दो लोग
हँस पड़ेंगे।

( फोटो  उस घर के एक हिस्से की है जहाँ अभी सिर्फ मैं हूँ , यकीनन कुछ दिनों बाद तुम भी होओगे)