Sunday 18 January 2015

नहीं है प्रेम तुमसे
मैं नहीं हूँ तुम्हारे प्रेम में डूबी हुई
हाँ
लेकिन
जब देखती हूँ तुम्हे
तो नज़र में होता है उसका चेहरा
उसकी बातें , उसकी मुस्कान
तुम्हारी किसी बात पर जब खिलखिल कर उठती हूँ
तब वह होती है एक नैराश्य में डूबी खिलखिलाहट
कि
नहीं वो पास की भर सकु रंगों को मुठियों में
नहीं वो पास की डुबो सकूँ सारी उम्र को उसके रंगों में
सच ,नहीं है मुझे प्रेम तुमसे
किसी के कहने से भी नहीं है
बस
तुम्हारे नाम का बीच वाला अक्षर हु ब हु मिलता है उसके नाम के बीच वाले ही अक्षर से
शायद इसलिए थोडा सा लगाव हो उठा है तुमसे
लेकिन प्रेम तो सिर्फ उससे ही है ।

Saturday 17 January 2015

तुम्हारे चेहरे के साथ कभी मिलना नहीं हुआ तुमसे
फिर भी हर पल जिया है तुम्हारी उपस्तिथि को
तुम्हारे लिए गीत लिखे
पीठ पीछे उँगलियों को उलझा कभी कभी ढोया भी है तुम्हे
कल पढ़ी एक कहानी के हिज्जो में तुम दिखे थे कुछ धुंधले से
तुमसे मिलना तय है एक दिन
जैसे
तय है मिलना मृत्यु से


अक्सर बहुत कुछ भूलने लगी हूँ मैं अब,




भूल जाती हूँ तुम्हारे खतों को वापस वापस पढ़ना




बैठी रहती हूँ इंतज़ार में धैर्य से भरकर




घुटने और ठुड्डी जोड़ कमर मोड़ लगा लेती हूँ दीवार से




पैरों में होती झुनझुनी के बीच भूल जाती हूँ बैठी रही उम्र को उठाना अक्सर ,


देखती हूँ गोदी में पड़े निढाल से कुहनियों तक जमे तुम्हारे भीगे स्पर्श को,

अब अक्सर आसान लगता है
गीले , जमे, सूखे , पिघले, कैसे भी निशान को भूल जाना

इसी तरह कदम ब कदम चलते हुए एक दिन भूल जाउंगी वापस लौटना
.........................उम्मीद है।

Thursday 15 January 2015






मुझे ख़त लिखने नहीं आते और ना ही आता है शिकायतें करना, आता है तो बस हर पल , हर क्षण तुम्हे जीना. प्रतीक्षा में आसान लगता है तुम्हे गढ़ लेना, बिना देखे तुम्हे महसूस करना . इससे ज्यादा की न जरुरत है और न ही इच्छा.




भीगी आँखों और हँसती आवाज़ के बीच, दोनों हथेलियों की लकीरों को जोड़ते ,बीते समय को होंठों के किनारे पे अटका, जब तुमने कहा की आज बेहद खुश हो तुम तो सच जानो इससे ज्यादा सुकून देने वाले शब्द इस और उस दोनों ही दुनिया में न हैं और न ही हो सकते हैं।

बिल्कुल भी अजीब नहीं लगता की तुमसे बात करते हुए याद करती हूँ तुम्हे बेतरह.










तुम्हारे लिए ऐसा कोई शब्द गढ़ ही नहीं पाई आज तक जो मेरी सोच, मेरे मन, को परिभाषित कर सके.













तुम्हारे सामने बैठ देखना तुम्हें वो सब पढ़ते हुए जो मैंने तुम्हारे लिए लिखा ।

तुम्हारा मुस्कुराना और कहना "कविताएं समझ नहीं आती मुझे"।

लेकिन तुम्हारी आँखें ,तुम्हारा स्पर्श ,कह उठता है की तुम मेरे शब्दों को नहीं सिर्फ और सिर्फ मुझे पढ़ना चाहते हो।

तुम्हारे सामने बैठ के उन शब्दों को मुट्ठियों में भरना जो कभी लिख नहीं पाउंगी।

कलाई में बंधे काले धागे के नीचे एक उंगली डाल तुमने खींचा था और मेरी मुट्ठी खुल गई थी, खुली हथेली पे जोर से हाथ मार तुमने वो सारे बीज उड़ा दिए थे जो अब लौट कर तुम्हारी जेबों में बैठ जाते हैं और तुम मुट्ठियाँ भींच लेते हो।

तुमने कहा- जाओ , तुम्हारी आँखों ने कहा-मत सुनो मेरी । कैसा वरदान है न हमारी मुहब्बत को की जब-जब भी कोई आधा अक्षर लिखने को नज़र झुकाएगा हम जी जायेंगे. आओ इस श्राप को साझी ओक से पी लें।

7 जनवरी 2015 का एक लम्हा , जिसे वहीँ रोक दिया है , जिसे न बीतने देना चाहती हूँ और ना महसूस करना और न ही जीना।
रीत गया तो?













दम घुट रहा है, सांस लेने में तकलीफ हो रही है। नहीं, इसमें तुम्हारी याद का कोई कुसूर नहीं.
पिघलती पुतलियों के सारे रंग सूख चले हैं । उंगलियां जिस तरह तुम्हे उकेरना चाहती हैं रंगों को वो मंज़ूर नहीं और रंगों की चाहत को उँगलियों ने नकार दिया है। तुमसे न कोई वादा कभी लिया और न ही दिया फिर भी हमने होंठों पे आये हर आँसू और आँखों में आये हर शब्द को निभाया । शायद नहीं यकीनन मैं आज तक उस लम्हे को जी रही हूँ जिसमे ताकत है की वो मुझे एक साथ ख़ुशी और दुःख दोनों से नवाज़ सके।

Friday 2 January 2015






तुमने कहा था..आवाज़ दोगी, तारीख़ भी मुकर्रर की थी,




तुमने कहा था

अपनी किसी चाहना की उलझन में

दो उँगलियों में से चुनो ज़रा किसी एक को




तुमने कहा था

जब चुप से कमरे में तैरे आवाज़ कोई

तो

आँखें मूँद,

एक जुम्बिश भर मुस्कुरा दूँ







तुमने कहा था

जब गिनना हों अकेली बैठी सदियों को

तो

मुट्ठी की पीठ पर नहीं

गिना करूँ खतों को










तुमने कहा था....




अब कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती तुम।












मेरे तुम्हारे बीच
रहस्य सी
तो कभी
खिलखिलाती सी
मुस्कराहट की वजह
एक शब्द या नाम नहीं
इक दुआ थी
जिसे पढ़ा मैंने और फूंक तुमने मारी थी
अब इसे
तुम्हारे गले से उतार
मैंने बाँधा है उस सूनी बाँह पर
जहाँ कोई भी
नमकीन या मीठे से
टीसते बोसे का
निशान नहीं।