Tuesday 17 February 2015


                                        इश्क....इश्क.....इश्क....                         







सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।



मधुशाला....मधुशाला... जब भी ये सुनती हूँ अपना पहला इश्क याद आता है. जैसे पहले एक जय साबुन का ऐड आता था  ..पहला प्यार.. लाये जीवन में बहार.. पहला प्यार.. कैसा अजीब सा गुदगुदी सा अहसास होता था टीवी पर ये ऐड देख कर. वैसे ही जब आज ये लाइन्स कानों में पड़ी तो याद आया अपना पहला प्यार. या यूँ कहना चाहिए की मुझे दो बार पहला प्यार हुआ, अब कौन सा पहला कौन सा दूसरा तय करना कठिन तो दोनों ही मेरे पहले प्यार ... शायद सातवीं क्लास में थी जब घर में मधुशाला पहली बार सुनी ... सुनी और डूबती गई... ये वो ज़माना था जब क्लास की लडकियां मिल्स एंड बूंस पढ़ती थी और उन खूबसूरत से ग्रीक देवों जैसे हीरो की चर्चा किया करती थीं. ऐसा नहीं की मैंने पढने की कोशिश नहीं की  लेकिन एक नावेल भी पूरा नहीं पढ़ पाई कभी. जब मधुशाला सुनी तो इन शब्दों के रचयिता के प्रेम में पड़ गई. पता नहीं क्यूँ मन्ना डे से इश्क नहीं हुआ.. इश्क हुआ तो शब्दों से और बेहिसाब हुआ. उसके बाद हरिवंश राय बच्चन को पढ़ा गया. उनकी कविता नीड़ का निर्माण फिर फिर को पढ़ कर जाने कितने इंटर स्कूल चैम्पियनशिप में ट्रॉफी जीती गई. शब्दों की इन गलियों में किसने ऊँगली पकड़ पहली बार सैर कराई थी याद नहीं . पापा के पास बहुत किताबें थी .. इंग्लिश नोवेल्स थे जो नाइन्थ क्लास तक आते आते सारे चाट डाले. इन नोवेल्स के इलावा  विष्णु प्रभाकर, शिवानी,  आशापूर्णा देवी, शरत चन्द्र, राजेंद्र बेदी, इस्मत चुगताई, मंटो,   और भी जाने कितने नाम जो नाइन्थ तक पढ़ डाले. फिर एक दिन किसी ने मेरे हाथों में अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट रखी. लगा शब्दों को ऐसे भी संजोया जाता है? मन ऐसे भी कागज़ पर उतारा जाता है? हम किसी को कितना पसंद करते हैं शायद ये इस बात पर निर्भर करता है की हमने उनकी पहली आवाज़ कौन सी सुनी. अब तक शब्दों , भावों  की सीधी-सीधी  गलियों में घूम रही थी अचानक ही  तीखे मोड़ों, सीधी अतल  गहराई और चुभती सी चढ़ाई वाले रस्तों पर किसी ने ला खड़ा किया. यही समय था जब मैंने ग़ुलाम अली की" एक पगली मेरा नाम जो ले , घबराए भी शर्माए भी" और मेहँदी हसन की "मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो" सुनी, लेकिन पता नहीं क्यूँ न तोमुझे मोहसिन नकवी और न ही मसरूर अनवर से मुहब्बत हुई , हुई भी तो इन आवाज़ों के जादूगरों से हुई. ग़ुलाम अली को सुनो तो लगता है की कहीं बहुत बहुत  उतार ले जा रही है ये आवाज़. तो दूसरी तरफ मेहँदी हसन की आवाज़ आसमान के पार नीरवता में भिगो देती है. बेग़म अख्तर से परिचय भी इन्हीं दिनों हुआ था , उनको सुनो तो सीने में हुलक सी उठती थी. गोया ये के इश्क में डूबने को महबूब बेहिसाब थे और हमारे इश्क के चर्चे भी आम थे. अच्छा हुआ कभी किसी चेहरे की लगन में नहीं डूबी, पता नहीं, याद नहीं की कब कैसे रंगों में डूबी, रंग... रंग... उँगलियों से आती रंग की खुशबु.... हथेलियाँ रंगों से सरोबार... चेहरा .. कपड़े सब रंगों में लिपटे हुए... इतनी सी याद बची है की रंगों में डूबना सुकून बनता गया. तारपीन के तेल की महक किसी भी डियो की महक से ज्यादा अच्छी लगने लगी. आज भी जब अपनी दुनिया में पैर फैला के बैठने का मन होता है तो कैनवास और रंगों की ही पनाह में जाती हूँ.
                              जाने रंगों से ज्यादा मोहब्बत है या शब्दों और आवाजों के जादूगरों से ... कभी फैसला नहीं हुआ ... इसलिए दोनों से ही इश्क पहला इश्क हुआ. कौन ज्यादा सर चढ़ के बोलता है .... कौन ज्यादा गहरे तक पैठा हुआ है पता नहीं..
                                                                                    इश्क किया और डूब कर टूट कर किया, इन आवाजों ने , इन शब्दों ने,इन रंगों की खुशबुओं ने   इश्क की गहरी लू में तपती रेत पर तड़पना सिखाया जो आज तक मुसलसल जारी है. किसी चेहरे से शायद ऐसा जुनूनी इश्क नहीं कर पाती जो एक ख्याल से कर बैठी.... जब तक ये इश्क सलामत तब तक हम सलामत..



रोक सको तो पहली बारिश की बूँदों को तुम रोको
कच्ची मिट्टी तो महकेगी है मिट्टी की मजबूरी

Tuesday 10 February 2015



तुम मेरे लिए ताबीज़ जैसे हो

और

मैं तुम्हारे लिए किसी राह की अजनबी राहगीर

तुम्हे होना ही था

और मैं ठहर कर क्या करती

हज़ार साल भी रहती तो भी

तुम्हारी राह मुझसे से ना मिल पाती
                                                  एक अदद दोस्त चाहिए.....








आज किसी से बात करने का जी चाह रहा है, असल में आज नहीं बल्कि पिछले कई दिनों से मन हो रहा है कोई मिल जाए और मैं अपना जी उड़ेल दूं. लेकिन ऐसा कहाँ हो पता है. जो सोचो वो तो बिलकुल नहीं हो पाता . किसी दोस्त के सामने  बैठ सब कुछ कहना या फिर फोन पे ही दिल खोलना कहाँ हो पता है मुमकिन. दोस्त हैं तो ज़ाहिर सी बात है मेरे दुःख पे दुखी हो जायेंगे, बस यही बात मुझे कुछ भी कहने से रोक लेती है. और देखा जाए तो दुःख भी नहीं है, शायद अपने कम्फर्ट जोंन से बाहर नहीं निकलना चाहती. ऐसे वक़्त में वो मेंढक वाली कहानी याद आ जाती है जो उबलते पानी से चाहना के बावजूद नहीं निकल पाता. कहानी कुछ यूँ है की एक मेंढक को कुछ वैज्ञानिकों ने एक आधे भरे हुए कांच के जार में डाल  दिया. वैज्ञानिकों ने अब पानी का टेम्प्रेचर बढ़ाना शुरू किया, पानी गर्म होता गया और मेंढक अपने आपको उस गर्म होते पानी के साथ एडजस्ट करने में लगा रहा. एक समय ऐसा आया जब उसने निर्णय लिया बाहर कूदने का लेकिन तब तक देर हो गई थी और वो अपनी सारी एनर्जी खर्च कर चूका था अपने आपको एडजस्ट करने में. कहीं ऐसा ही हाल मेरा भी न हो. परिस्थितियों से एडजस्ट करते करते कहीं मैं उस लॉन्च पैड को अनदेखा न कर दूं जो ज़िन्दगी मुझे दे रही है.

                                                                                    ज़िन्दगी बदलने वाली है, पूरी तरह बदलने वाली है, क्या इस बदलाव से भाग रही हूँ, या डर लग रहा है, कहना मुहाल है. क्या वाकई अकेलापन इतना त्रासद होता है की उससे डरा जाए. क्या करुँगी, कैसे रहूंगी जैसे सवाल इस इंतज़ार में मुँह बाए खड़े हैं की मैं उनके जवाब तलाश कर उन्हें दे दूं. लेकिन फिलहाल मेरे पास कोई जवाब नहीं. सिर्फ एक मूल मन्त्र है --"जो होता है अच्छे के लिए होता है", "जो होगा देखा जायेगा". कहना आसान है करना मुश्किल. किसी से मतलब किसी से भी भाई- भाभी माँ पापा कुछ नहीं कहा जा सकता, जब किसी का कोई इख्तियार नहीं तो बोलना क्यूँ. एक दोस्त कहता है की प्रकृति हमें तैयार करती है आने वाली ज़िन्दगी के लिए, शायद यही सच हो.  उससे इधर-उधर की ढेरों बातें की लेकिन चाह  कर भी उसे कुछ नहीं बता पाई. वो पूछता है दिल्ली कब आओगी, और मैं उसे एक महीने का नाम बता देती हूँ ये सोचते हुए की अभी झूठ बोल लो जब वो वक़्त आएगा तब देखा जाएगा.
       

                                                                                                      एक अदद दोस्त चाहिए जैसा विज्ञापन दे देती हूँ, ऐसा दोस्त जो अजनबी भी हो, जिसके आगे जब आँखें भर आये तो वो ना रोये, जिससे कुछ भी कहना और कह कर भूल जाना आसान हो.

एक कागज़ पे ढेर सारे नाम लिखे. उन्हें दोस्तों, रिश्तेदारों, परिचितों जैसी कैटेगिरी में बांटा. फिर पेंसिल चबाते हुए सोचा परिचितों के सामने दिल उड़ेलना जैसी बेवकूफी नहीं करनी चाहिए. रिश्तेदारों और दोस्तों के नाम भी एक एक कर कटते गए, कुछ को मेरी नहीं सुननी और कुछ को मैं अपनी सुना के दुखी नहीं करना चाहती, तो लो बचा  रह गया ख़ाली कागज़ और सारी परेशानियां मेरे पास. फ्यूचर पता नहीं क्या है फिर भी फ्यूचर प्लान कर रही हूँ रात-रात जाग के. खुली आँखों से सपने देखने जैसा मीठा कुछ नहीं होता. जहाँ मैं अपनी ज़िन्दगी रिवाइंड करती हूँ, कुछ पलों को जितनी बार मन करे उतनी बार जीती हूँ, सुखद फ्यूचर निहारती हूँ और एक दिन सब ठीक हो जाएगा कह कर आँखें मूँद सोने की कोशिश करती हूँ.

                                                                               ना पेंटिंग कर रही हूँ , ना लिख रही हूँ और ना ही कुछ पढने में मन लगा पा रही हूँ. स्कूल के  बच्चो,  जिनके एग्जाम सर पे हों, की तरह किताब खोल के गोद में रख लेती हूँ और आँखें पन्नों में बींध देती हूँ फिर भी कुछ नहीं दीखता. अलबत्ता वो सब जरुर याद आता है जो नहीं आना चाहिए. अजीब कैफियत हो चली है.

                                                      मजाज़ के इलावा और कौन  है जो सहारा दे सके

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ 
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ 
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ