Sunday 18 September 2016

कभी मेघालय में मुझे कुछ दो-एक साल रहने का मौका मिला था , वहां की तारीफ करने को  बहुत कुछ था जैसे की जीरो पॉल्यूशन  एरिया , हर घर में जलते अलाव, वहां का मौसम , सब कुछ तो बेहद खूबसूरत था लेकिन एक बात खटकती थी की वहां के लोग "हम लोगों" से सीधे मुंह बात नहीं करते थे , किसी शॉप पे जाओ तो हमें सबसे बाद में अटेन्ड किया जाता था , गुस्सा आता था की ऐसा व्यवहार क्यों?  जवाब शायद पता था लेकिन उस जवाब से आँख मिलाये कौन, लेकिन  परदे पर जब  वकील एक लड़की से कहता है कि  "अच्छा तो तुम नार्थ ईस्ट से हो, कहाँ से?, मणिपुर से?, बाद में जब दूसरा वकील कहता है कि  किसी के चरित्र का निर्धारण क्या इस बात से किया जा सकता  है कि  वह देश के किस हिस्से को बिलोंग करता है?  हम स्तब्ध नहीं हुए , गुस्सा नहीं आया बल्कि सर शर्म से झुक गया , याद आया कि   किसी को सिर्फ इसलिए पीटा गया था  कि  वो नार्थ ईस्ट से है या फिर, कॉलेज कैंपस में किसी पर फब्तियां कसना क्योंकि वो नार्थ ईस्ट से है  या फिर  "चिंकी" शब्द का प्रयोग।
                 



                 पिंक फिल्म है पूरी तरह से इसके  स्टोरी राइटर,स्क्रीन प्ले/ डायलॉग राइटर, एडिटर और डाइरेक्टर की, जो बिना शोर किये आपके बेहद पास आ कर  बम ब्लास्ट के बाद का सन्नाटा पैदा करती है। ये फिल्म ऐसी बहुत सारी बातों को आवाज़ देती है जिसे हम नार्मल मान कर बैठ गए हैं,  पार्क में टहलती हुई मीनल अरोरा को देख कर लड़कों का रिमार्क-"देख, देख वही है सूरजकुंड काण्ड वाली", ये सीन देख कर कुछ भी एबनॉर्मल  नहीं लगता ,मीनल अपने सर को कवर करती है, वो छुपना चाहती है , ऐसा ही तो होता है न, समाज यही तो उम्मीद करता है न लड़कियों से,  लेकिन अमिताभ उसका सर खोल देते हैं , अमिताभ का मीनल के सर को खोलना हिम्मत और उम्मीद देता है की हमारे आस-पास ऐसे लोग भी हैं वहीँ राजबीर भी है जो पढ़ा-लिखा है, लन्दन से पढ़ कर आया है  लेकिन फिर भी मानसिकता वही की वही है कि  "अच्छी लडकियां ड्रिंक नहीं करती, लड़कों से हंस के बात नहीं करती, पार्टीज में नहीं   जाती", क्या फायदा ऐसी पढाई-लिखाई का ? कहाँ चूक हो गई हमसे कि आज के  पढ़े-लिखे , दुनिया देखे युवा की भी  सोच वही सदियों पुरानी है।  
                                                                     कोर्ट रूम में अमिताभ का ये कहना मीनल से -" I can't hear you" , मीनल का रुक-रुक कर , डर कर, धीमी आवाज़ में जवाब देना,  फिल्म के ये सीन देख कर लगा क्या वाकई हमने यही सिखाया है अपनी  लड़कियों को की सही हो फिर भी  डरना , धीमी आवाज़ में बोलना !!  आज भी जब फिल्म देखने जाते हैं तो परिवार की महिलाएं बीच में बैठेंगी ऐसा बच्चे भी सीख जाते हैं क्योंकि बगल के सीट पर बैठे पुरुष पर भरोसा करना सीखा  ही नहीं , क्योंकि अगर आप कुर्सी पे आराम से हाथ रख कर बैठेंगी तो बगल के पुरुष को आप "हिंट" देंगी की वो अँधेरे में आप को छू सकता है जैसा की इस फिल्म में राजबीर को समझ आया।

                                 



     पिंक फिल्म है तीन लड़कियों की जो रॉक कॉन्सर्ट में जाती हैं, हंसती बोलती हैं, फ्रेंड के फ्रेंड से मिलती हैं, साथ बैठती हैं ड्रिंक करती हैं "वैसी" लड़कियाँ होंगी तभी तो।  फिल्म में एक कहानी है ( सुकून, आश्चर्य कि कहानी है) जो इधर-उधर कहीं भी नहीं भटकती, एक भी सीन फ़ालतू, ठूंसा हुआ नहीं लगता और यहीं इस फिल्म की टीम बाजी मार ले जाती है ,अपनी बात को सलीके से कहिये तो दुनिया सुनेगी ये प्रूव कर दिया  अनिरुद्ध रॉय चौधरी और रितेश शाह ने।  
                                                  फिल्म में अमिताभ लड़कियों के लिए सेफ्टी रूल बनाते हैं, लड़कियों को "ऐसा-ऐसा"नहीं करना चाहिए,सुन कर क्या किसी को आश्चर्य हुआ? नहीं न, बचपन से यही तो सुनते आये हैं, और अपने बच्चो को भी तो यही सिखाया है , आपके अंतरवस्त्रों पे नज़र रखने वाले आप का चरित्र निर्धारित करते हैं, कुछ अजीब नहीं लगा, अजीब लगा तो ये की किसी ने तो इन बातों पे सवाल उठाया, किसी ने तो हमारी मानसिकता में बैठी हुई इन बातों को बाहर ला कर खड़ा किया, जवाब माँगा और खुल कर माँगा। 
                                                                   
                                   

  कॉकटेल फिल्म में जब वेरोनिका, गौतम की माँ के सामने,  पैर फैला कर बैठती है तो रणधीर उसे इशारे से बताते हैं की लड़कियों को कैसे बैठना चाहिए तो लगता है सफर अभी बहुत लंबा है.
                                                                                                             अमिताभ का कोर्ट में मीनल से  कहना की "आर  यू अ  वर्जिन" और जज का कहना की मीनल चाहे तो इस बात जवाब नहीं भी दे सकती है या वो ऑन  कैमरा जवाब दे सकती है ,तो लगा  वाकई सफर बेहद लंबा है लेकिन चोट पड़नी  शुरू तो  हुई। 
          मीनल को गिरफ्तार करने आई पुलिस को देख   कर सोसाइटी के लोग सिर्फ देखते हैं जैसे की वो उन लड़कियों को देर रात आते देखते हैं या उनके कपड़ो को देखते हैं या फिर उनके घर आये उनके दोस्तों को. 
                                                            पुलिस अधिकारी का ये कहना की "आप ने भी तो पी रखी थी मैडम"उसका लहज़ा और चेहरे के भाव कुछ सोचने के लिए नहीं छोड़ते की पीने वाली लड़कियों को किस निगाह से देखता है हमारा पढ़ा-लिखा समाज।  अमिताभ पुलिस कण्ट्रोल रूम फोन करते हैं कि  उनकी आँखों के सामने एक लड़की को उठा लिया गया तो महिला पुलिस का इरिटेटिंग स्वर है की गाडी का नंबर तो नहीं है न आपके पास।  पुलिस अधिकारी का कहना है की ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली उन्हें, ये देख कर लगता है की अगर १०० नंबर उठ भी जाए तो क्या कोई कुछ करेगा? 
                                                       फिल्म इस बात को ज़ोर दे कर कहती है की "ना" को ना ही समझिए  फिर वो किसी लड़की की ,  किसी दोस्त  की ना हो, गर्लफ्रेंड की ना हो , सैक्स वर्कर की ना हो या फिर आपकी बीवी की ना हो, ना मतलब ना, भूल जाइये वो सदियों पुरानी  उक्ति की" लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है"  
             ये फिल्म जो कहना चाहती है शानदार तरीके से पूरे कन्विक्शन के साथ कहती है।  फिल्म में गानों की कमी बिलकुल भी नहीं खलती , कारी कारी गाना परदे पर चल रहे दृश्यों को अंतस में गहरे तक उतार देता है।  
                                         
                बस एक बात समझ नहीं आई की फिल्म का ताना बाना जिन दृश्यों पर बुना  गया जब वो दृश्य पूरी फिल्म में दिखने की ज़रूरत अनिरुद्ध रॉय चौधरी महसूस नहीं हुई जो की एक ब्रिलिएंट आईडिया था तो उन दृश्यों को आखिर में क्यों दिखाया गया, क्या निर्देशक को ये यकीन नहीं था की दर्शक न्याय व्यवस्था पर यकीन नहीं कर पाएंगे या फिर  जब फैसला लड़कियों के पक्ष में हुआ तो निर्देशक को लगा की उस फैसले के सपोर्ट में वो दृश्य दिखाए जाने चाहिए कि लडकियां झूठ नहीं बोल रही थी। 
                                         

फिल्म क्यों नहीं देखी  जानी चाहिए ---- अगर आपको इसके नाम  से ऐतराज़ है , ये रंग  लड़कियों का कहा जाता है ना।  
--- अगर आप  आँख मूँद कर रहने में ही भलाई समझते हैं।
----अगर आपने अपने बेटों को सिखाया है की लड़के रोते  नहीं हैं।  
----अगर आपको लगता है की लड़के हैं उनसे गलतियां हो ही जाती हैं। 



फिल्म क्यों देखी जानी चाहिए -------  अच्छी कहानी, कसा  हुआ निर्देशन 
                                      -------- अमिताभ की बोलती आँखें 
                                    -------- सभी की अच्छी एक्टिंग 
                            --- अगर आपने अपने बेटों को सिखाया है की लड़के रुलाते नहीं हैं।  
                                 

                                                    

Tuesday 6 September 2016

हथेली के सारे रंग,
 मल देना मेरे चेहरे पर,
  दिखाई में आती  रहे तो बस
   उगी हुई आँखें,

उठा लेना कांधों से ऊँचा मुझे,
                 की
चटका सकूँ दागिल  एक ख्वाहिश
और
अटका दूँ तुम्हारे माथे.

सुनो न,
      करना कुछ ऐसा
कि,
   संस्कार के  अंतिम क्षणों में,
 बंद लगाना
काले धागे से
पैरों के दोनों अँगूठों में ,
धागे के सिरों को
पकड़
ज़ोर से कसना,
बचा न रह सके
कोई भी रास्ता
कहीं उभरने का ,
चन्दन, फूल , कपूर,
हिय-आस
सब दहका एक साथ  देना
और

पुकार उठना श्वास की लय  पर,
प्रेम नाम सत्य है
प्रेम, प्रेम

सुन रहे हो ना,

ऐ ! औघड़ !!!!