Wednesday, 30 October 2013

कितने अर्थ निकलती है वो लड़की ,
हर तरह के
सहमे ,ठन्डे
और
कभी लहुलुहान करते पोरों को
गोदी में लिए शब्दों को
खड़ी रहती है चुप
प्रतीक्षारत
काँधे से लगा
थपक सुला दे इन शब्दों को
हाथ नीचे कर
बिना टेक खड़ी हो सके
रस्ते भी  दे सके उसे असीस

Sunday, 27 October 2013

मेरी प्रिय,
देता रहा हूँ
ह्रदय प्यार
तुम्हे अनवरत,
लेकिन
कतिपय अवसरों पर
तुम भी
प्रेम नही,
प्रेम अभिनय की
आकाछिंत हो उठती हो,
इस अभिनय में चूकने पर,
"जिद के आगे हारा प्यार मेरा"
कह बैठती हो,
मान लेती हो
प्रेम पगे पलों को भी अभिनय
अतः
अब मैं भी,
प्रेम ह्रदय से नही,
मस्तिष्क से करने के लिए,
इस वांछित अभिनय में,
दक्षता के लिए,
चेष्टारत हूँ !!!!

Thursday, 24 October 2013

छनाक ,
          कुछ टूटा
      मैं दौड़ी चली आई
मन को तो सहेज कर
                         आले में रख दिया था
           फिर कैसे चूर हो गया
उसे मछलियों  को उस कांच के गोल बर्तन में देखना बहुत पसन्द था ,कैसे मुंह खोले इधर से उधर दौड़ती रहती है ,सुनहरी मछली की  सारी दुनिया ही वही है वो छोटा सा गोला , उसका मन करता छू ले , कभी छुआ नहीं उसने , वो शाम होने के बाद और रात होने से पहले के जैसे रंग वाले चुप से  कुरते  को  उठा आईने के सामने अपना पेट देखने लगी -- अगर इसमें मछलियाँ हो तो ?, तो  वो उन्हें महसूस कर पाएगी . एक सच की मकड़ी ने कितने सारे झूठ  के जाले बुन  दिए उसके चेहरे के इर्द-गिर्द , कहते हैं , कौन कहता है पता नहीं उसने तो सुना था , की जहाँ  मकड़ी चल जाती है वहां फफोले पड़  जाते हैं , लेकिन उसे  फफोले दिखने की बजाए महसूस होते थे , सफ़ेद आँखों से  उसने फिर से पेट  को  देखते हुए सोचा  अगर मछलियाँ होती तो इधर से उधर दौड़ती ,सोच में वो मुस्कुराने लगी , देखा उसका पति दरवाज़े पे खड़ा देख रहा था , कुरता हाथों से छूट खुद-ब-खुद नीचे हो गया , आईने के सामने से हट कर वो उसके बगल से हो कर बाहर  जाने लगी .
                                  बीमार हो ?
                       ----     नहीं !
        मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ बोलती क्यों नही
हैरान कर देती है ये बात उसे की किसी को उसकी आवाज़ सुनाई   नहीं देती ,अपना कलेजा रख के बोले फिर भी  किसी के कानो  में   कुछ होता ही  नहीं , सर हिला कर  उसने पति को मना का इशारा किया ,अक्सर वो अचकचा जाती है इस ख्याल से की उसकी तरफ देखने वाले उसकी  आवाज़ नहीं सुन पाते , बाहर निकलते हुए उसने इस ख्याल को दरवाजे के पीछे सरका दिया ,ऐसे ख्यालों को रखने  के लिए उसे ये सबसे महफूज़ जगह लगती है , अब उसे अपनी आवाज़ की फिकर के साथ साथ और तरह की फिकर भी  होने लगी , पता नहीं उसे आंसू  भी  मिले   हैं या नहीं ,सोते में तो अक्सर रो लेती है फिर उसने आंसू देखा क्यूँ नहीं ,वो लुढ़कते हुए आंसुओं को देखना चाहती थी , अपने खाली  पोरों को देखती -अगर इस्पे आंसू धरा होता तो कैसा दिखता ,  सुना था उसने आँखों के कोनो पे आंसुओं की थैली होती है , बहुत ढूँढा उसने वहां उसे सफेदी के सिवा कुछ मिला ही नहीं , आँखें मिचमिचा कर  बहुत कोशिश की उसने आंसुओं को देखने की  फिर उकता कर वो सोने चली गई . लेटने पर उसे सांस नहीं आती , पहले तो ऐसा  नहीं होता था , सीने पर रखा पत्थर हटाने की कोशिश की , नहीं हटा तो उठ कर छोटी सी खिड़की से चेहरा  बाहर निकाल खड़ी  हो गई , कई बार उसे कोफ़्त होती खिड़की के छोटे होने से और उस छोटी सी खिड़की को और छोटा करते उसमे लगे हुए सरियों से ,खिड़की से उसने उस औरत को  जाते हुए देखा . सारे ख्याल ,  देखे-अनदेखे ,सुने - अनसुने  सब उस औरत के पीछे चल दिए .
                                                         दिन निकलते ही उसे अपना सबसे जरुरी काम याद हो आया , उस औरत से मिलना था उसे . उसे लगा था की उस औरत के घर वाले रस्ते अजीब से होंगे  , पता नहीं कैसे लेकिन कुछ अजीब  ,कुछ भी तो अलग सा नहीं था ,वैसे ही कुछ हरे कुछ कम हरे से पेड़ थे , वैसे ही धूल  बिखरी   हुई थी जो उसके पैरो से उडती हुई कपड़ो पे आ रही थी , आम रस्तों से कुछ भी तो अलग नहीं था इस रास्ते में , चलते हुए उसकी सोच उससे आगे चल रही थी , सारे रस्ते तो बिलकुल वैसे ही थे बाकी हर रस्ते जैसे .चिलचिलाती धूप महसूस नहीं हुई ,  वो उस औरत के सामने  खड़ी  हो गई चुपचाप . मोटी-मोटी काजल से काली आँखें , मुंह में पान था शायद  या नहीं पता नहीं लेकिन हंसी जरुर गुलकंद सी मीठी और पान सी लाल थी.
                           कुछ चाहिए ? पूछा उस औरत ने 
दोनों ही हैरान थी एक दूसरे के सामने  खड़ी हो कर
                          कुछ नहीं !
एक हैरानी ये भी थी की उस औरत ने धीमे से बोले गए शब्द ही नहीं उसकी आवाज़ भी सुन ली थी
सच है ! ऐसा कुछ नहीं जो सिर्फ एक का हो और दूसरे को दिया जा सके ,सब कुछ तो साझा है . मेरे पास जो आता है वो तुम्हारे घर के रास्ते को यहाँ इस पेड़ पे टांग देता है और लौटते हुए जेब में डाल चल देता है .
उसने आँख भर देखा उस औरत को , वो औरत स्वाभिमान की चादर लपेटे खड़ी थी , वो चुपचाप अपने सात कदम ले कर वापस लौट आई , वापस  लौटते हुए दरवाज़े पर उसे लगा जैसे उसके पेट में सुनहरी मछलियों की  जगह  पिराहना आ गई हैं , उसे लगा  ये  पिराहना उसकी सोच को कुतर डालेंगी , उसने आसमान की तरफ देखा , बरसने वाला था , अब उसे भीगना  अच्छा नहीं लगता , बारिश  के समय वो खिड़की से  चेहरा बाहर निकालने की  कोशिश भी नहीं करती , बूंदों के मिटटी में जज्ब होने से पहले याद करती है वो बारिशों के साथ आये हुए गैर -इरादतन ख्वाबों की   , बाढ़ में  डूबने से पहले और लकीरों में अकाल पड़ने से पहले ,  उसने कुछ बालियाँ तोड़ कर दरवाज़े के पास ही एक मिटटी के बर्तन में  सजा कर रख  दी हैं .
                                                                                दिन के एक हिस्से को उसने इंतज़ार के नाम सौपा हुआ है , बे-नागा  वो देहरी पे खड़ी हो आसरा देखती है ,  पता नहीं किसका , किसी की  आहट  का या किसी की लिखावट का , उस दिन के इंतज़ार का हिस्सा ख़तम कर पलटने से पहले ही कुछ पीले से पन्ने एक सादे से लिफाफे में उसके हाथों में  रख गया कोई , अचरज हुआ की न तो भेजने वाले का नाम है और ना ही पाने वाले का कोई पता , फिर भी उसे पता था , एक बिना देह की आवाज़ से उसे पता था की ये सारे पन्ने उसके लिए लिखे गए हैं , ये एक आवाज़ हमेशा से उसके साथ थी , बारिशों के पहले भी , बाढ़ से बहुत पहले और फसलों के बर्बाद होने से  बहुत-बहुत पहले से , आज खतम हुआ था इंतज़ार उसका ? , तो फिर सर क्यूँ दुखने लगा था उसका , आँखों का सफ़ेद रंग सुरमई क्यूँ नहीं हुआ ? , उसने सात कदमो को  अपने चेहरे पे फैलाया और आँचल में उन कदमो की गाँठ लगाते  हुए एक हाथ से दरवाज़ा बंद कर लिया .














































































                                                          
















Monday, 21 October 2013

तकली में,
फंसाती है इक्षाओं को उमेठ कर
कातती है स्वप्न,
एक गवाक्ष के सहारे
खींचती है डोर
परिंदों के आने के लिए
सुना है उसने
ठठाकर हंसती हुई लड़की
मरती नहीं कभी
उस देस में

Saturday, 19 October 2013

सीढियाँ उतरते समय सहारे के लिए दीवार पे टिकाया हाथ , लगा किसी के काँधे पर रखा गया हो , मुड कर देखा , आश्वस्त हुई , दीवार ही थी थोड़ी गोलाई लिए हुए , एक ख्याल पास से गुज़र गया नमी संभाले हुए , कौन देता है कंधा उतरते हुए को हाथ रखने के लिए .

Sunday, 13 October 2013



हमारे भाई बहनों और भौजाइयों ने तो बहुत चाहा और कोशिश भी की कि हम लम्बाई में अमिताभ से भी तिगुने नहीं तो कम से कम दुगुने जरुर हो जाएँ , पता नहीं किसकी किस्मत ने साथ नहीं दिया वैसे आज तक उनकी कोशिशे बरकरार हैं ।

बच्चों की छुट्टियां शुरू होने से पहले ही दूर-दराज़ के भाई बहनों का प्रोग्राम बन गया एक जगह इकट्ठे होने का , हमने भी हामी भर दी , तब पता थोड़े ही ना था की ओखली में सर डाल रहे हैं। ट्रेन की धक्कम- धक्की , खिच-पिच सिर्फ अपने प्यारे भाई बहनों की सूरत को याद कर कर झेल गए लेकिन क्या पता था की सर मुंड़ाते ही ओले पडेंगे। ठण्ड अभी शुरू हुई नहीं और गर्मी पूरी ढिठाई से अपनी जगह कायम है , हमने घर के बाहर ही सामान पटकते हुए आवाज़ लगाईं की कोई लेते आना भई ये सामान ,लस्त -पस्त से हमने कमरे में कदम रखा , कमरे में कदम रखते ही छोटे भाई साब चिल्लाये ---अरे!संभालो, संभालो, पकड़ो , गिरा जा रहा है हम डर गए , सोचा सारा सामान तो बाहर पटक आये थे ऐसा क्या रह गया ,भाई साब के बोलते ही कमरे में ख़ामोशी छा गई , ऐसी ख़ामोशी की पलक भी झपके तो आवाज़ आये , हमने सहम कर नीचे देखा , कहाँ ? क्या गिरा ? हमें कुछ दिखा ही नहीं , नीचे तो साफ़ चमकता हुआ फर्श दिख रहा था ,एक तिनका भी तो नहीं था , छोटे भाई साब बोले अरे तुम्हारा पेट घुटने से नीचे गिरा जा रहा है , संभालो उसे , खिसियाये हुए हम कुछ कहते उसके पहले ही इकट्ठे हुए भाई -भौजाई , बहने सबने ऐसा गगन-चुम्बी ठहाका लगाया की हमारी खिसियाहट चुपचाप खिडकी की झिर्री में से नौ - दो -ग्यारह हो गई , ठहाके ठहर पाते , सांस ले बैठ पाते उससे पहले बड़े भाई साब बोले --अच्छा अब पूरी तो अंदर आ जाओ ! हम निरे गधे के गधे ही रहे , अभी खिचाई हो के चुकी थी पल भर में भूल गए और मासूमियत से पूछ बैठे - मतलब ? भाई साब ने अपनी मुस्कराहट मूछों में छुपाते हुए कहा ---अरे आगे का हिस्सा तो कमरे में आ गया , थोडा सा आगे बढ़ो , पीछे के हिस्से को भी आने दो कमरे में , वैसे ही उसे एक हफ्ता लगता है पूरी तरह से कमरे में आने में .
हद्द होती है हर बात की , अभी आ के टिके भी नहीं और ये सारे शुरू भी हो गए , ये सारे अजीब से प्राणी खींच- खींच कर हमारी लम्बाई बढ़ाने में लगे हुए हैं , सारे भाई - भौजाइयाँ पेट पकड़ कर जमीन पे लोट लगा रहे थे , हम मुँह बिसूरे और सारे बच्चे मुँह बाए इस नज़ारे को देख रहे थे , जो धमाचौकड़ी इन बच्चो के हिस्से आनी चाहिए वो तो ये सारे मिल कर किये जा रहे हैं , जहाँ मिले ये चार सर , वहीँ शरारतों को लग जाते हैं पर , पता नहीं किस घड़ी में हमें ये ख्याल आया था की सब इक्कठे हो रहे हैं तो हम भी जुट जाएँ ,विनाश काले विपरीत बुद्धि , अब पीटो सर अपना , छुट्टियाँ तो नज़र आ गई कैसी बीतने वाली हैं .



(बुनी जा रही कहानी का एक अंश )

Thursday, 10 October 2013

सोचती  हूँ  खूब- खूब   पढ़ना  जरुरी  है  जिससे  बोलना  आ  जाए ,  पढ़ती  हूँ  तो  शब्द  गहरे  पैठ  जाते  हैं  और  मैं  मौन  से  थोडा  और  सट  कर   बैठ  जाती  हूँ  . चाहती हूँ   मौन   से  भाग  कर  शब्द  हो  जाऊं  लेकिन  चाहने  से  क्या  होता  है  न  , अपने  शब्दों  को  काट - छांट  कर  और  छोटा  कर  देती  हूँ ,काश  सामने  वाला  बित्ते  भर  में  समझ  ले और जवाब  दे  दे  बिना  सवालों  के  . जैसे  नानी  चिट्ठी  में  लिखा  करती  थी  माँ को  "कम  लिखे  को  ज्यादा  समझना " , कहते  हैं  शब्द  हमेशा  के  लिए टंगे  रह  जाते  हैं  हवा  में ,मरते  नहीं  कभी  , और  उन  टंगे  हुए  शब्दों  से  ख़ज़र के  रस्तों  को , कच्चे  घड़े  को  लिए बैठी  उस लड़की  की कहानियों  को  और उन सात घोड़ो  को  कष्ट  होता  है  . और ये  कष्ट  मेरी  आवाज़  पे  बंद मार  उसे  आबनूसी  कर  देता  है  और  मैं काफी  सीखाने  के  बाद  भी  , कोशिशों  को  किनारे  रख  मौनभाषी   होना स्वीकार  लेती  हूँ  .

Saturday, 5 October 2013

अनार के दानो सी हँसी ,

           अपनी बाँसुरी के स्वर ,

        बिना देह की आवाज़ ,  

पीले  नर्गिसों सी शाम

जो कुछ तुमने मुझे दिया है ,

   सब लौटा लो ,

बदले में दे दो

एक सूरज से अगले सूरज का एक दिन !!!