फाइंडिंग फेंनी देखी, पंकज कपूर, डिंपल कपाडिया , नसीरुद्दीन शाह ये नाम ऐसे थे की कोई भी थिएटर तक खिचा चला जायेगा. लेकिन फिल्म देख कर लगा की इन तीनो ने ही बुरी तरह ठगा है. बहुत सारे लोगो को ये फिल्म बेहद अच्छी लगी, क्यूँ लगी मैं समझ नहीं पाई. कहानी के नाम पे शायद लेखक के दिमाग में कुछ हो जिसे निर्देशक परदे पे उतार नहीं पाए. फाइंडिंग फेंनी किसकी कहानी है? प्यार को ढूँढने की? अपने आप को ढूँढने की ? शायद निर्देशक को भी समझ नहीं आया .
एक्टर्स ने उतना ही किया है जितना इस लचर सी कहानी में करने की गुंजाईश है. एक सीन में डिंपल कपाडिया की स्कर्ट पीछे से फटती है, किस लिए था ये सीन? हास्य के लिए? अगर यही स्कर्ट टखनो पर से फटती तो जाहिर सी बात है कोई हास्य उत्पन्न नहीं होता. यानी कि निर्देशक का कहना है की किसी महिला के एक विशेष जगह से कपडे फटने पर हमें हंसना चाहिए. कोई जरुरत नहीं थी इस सीन की.
एंजी( दीपिका पादुकोण) इतनी कंफ्यूज क्यूँ है, क्या कोई भी लेडी तभी बोल्ड होती है जब वो अपने दोस्त से कहती है की उसने आखिरी बार छ साल पहले किस किया था और वो अपने दोस्त के साथ सैक्स करती है? लेकिन अपने इस रिश्ते को वो माई के सामने स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. दिन की रौशनी में जब साविओ(अर्जुन कपूर) एंजी को किस करता है तो वो साविओ को थप्पड़ मारती है और चिल्लाती है की वो ऐसी नहीं है और साविओ को सिर्फ दोस्त मानती है लेकिन उसी रात वो साविओ के साथ सैक्स करती है. दोस्ती और प्यार का ऐसा घालमेल सिर्फ होमी अदजानिया ही दिखा सकते हैं.
डॉन पेड्रो (पंकज कपूर) आर्टिस्ट कम और अहमक ज्यादा लगते हैं. रोज़ी के घुटने से स्कर्ट उठा कर उस घुटने का क्या स्केच बनाते हैं,कौन सा मास्टर पीस उन्हें वहां मिलेगा ये निर्देशक ही समझ सकते हैं. डॉन पेड्रो अंत में जो पेंटिंग बनाते हैं, उस पेंटिंग को देख कर रोज़ी हतप्रभ रह जाती हैं, डॉन पेड्रो भारी भरकम डायलॉग बोलते हैं उसके बाद अच्छा होता की हम दर्शकों को भी उस पेंटिंग की एक झलक के बजाए पूरी तरह पेंटिंग देखने का मौका मिलता.
फिल्म के आखिर में नसीरुद्दीन शाह ऐसा क्या देखते हैं की वो आगे का रास्ता अकेले तय करने का फैसला करते हैं, मुझे भी वो देखना था. नसीरुन्द्दीन शाह ने फर्डी की भूमिका में अपने आप को वेस्ट करते हुए न्याय किया है. नसीरुद्दीन शाह को देख के लगता है की फिल्म में उन्हें बाकी किसी से कोई मतलब नहीं, नसीर अपने रोल से पूरी तरह कन्विंस दिखते हैं.
शायद ये एक इंटेलेक्चुअल फिल्म बनाने की कोशिश की गई है जो गले नहीं उतरती.
फिल्म में इसका एक गाना सुकून देता है लेकिन उसे भी देखने की बजाए आँख बंद कर सुनना ज्यादा सुहाता है.गाना शुरू होते ही पैर अपने आप थिरकने लगते है आप झूमना शुरू करते ही हैं की गाना ख़त्म हो जाता है और आप ठगा सा महसूस करते हैं.
एक्टर्स ने उतना ही किया है जितना इस लचर सी कहानी में करने की गुंजाईश है. एक सीन में डिंपल कपाडिया की स्कर्ट पीछे से फटती है, किस लिए था ये सीन? हास्य के लिए? अगर यही स्कर्ट टखनो पर से फटती तो जाहिर सी बात है कोई हास्य उत्पन्न नहीं होता. यानी कि निर्देशक का कहना है की किसी महिला के एक विशेष जगह से कपडे फटने पर हमें हंसना चाहिए. कोई जरुरत नहीं थी इस सीन की.
एंजी( दीपिका पादुकोण) इतनी कंफ्यूज क्यूँ है, क्या कोई भी लेडी तभी बोल्ड होती है जब वो अपने दोस्त से कहती है की उसने आखिरी बार छ साल पहले किस किया था और वो अपने दोस्त के साथ सैक्स करती है? लेकिन अपने इस रिश्ते को वो माई के सामने स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. दिन की रौशनी में जब साविओ(अर्जुन कपूर) एंजी को किस करता है तो वो साविओ को थप्पड़ मारती है और चिल्लाती है की वो ऐसी नहीं है और साविओ को सिर्फ दोस्त मानती है लेकिन उसी रात वो साविओ के साथ सैक्स करती है. दोस्ती और प्यार का ऐसा घालमेल सिर्फ होमी अदजानिया ही दिखा सकते हैं.
डॉन पेड्रो (पंकज कपूर) आर्टिस्ट कम और अहमक ज्यादा लगते हैं. रोज़ी के घुटने से स्कर्ट उठा कर उस घुटने का क्या स्केच बनाते हैं,कौन सा मास्टर पीस उन्हें वहां मिलेगा ये निर्देशक ही समझ सकते हैं. डॉन पेड्रो अंत में जो पेंटिंग बनाते हैं, उस पेंटिंग को देख कर रोज़ी हतप्रभ रह जाती हैं, डॉन पेड्रो भारी भरकम डायलॉग बोलते हैं उसके बाद अच्छा होता की हम दर्शकों को भी उस पेंटिंग की एक झलक के बजाए पूरी तरह पेंटिंग देखने का मौका मिलता.
फिल्म के आखिर में नसीरुद्दीन शाह ऐसा क्या देखते हैं की वो आगे का रास्ता अकेले तय करने का फैसला करते हैं, मुझे भी वो देखना था. नसीरुन्द्दीन शाह ने फर्डी की भूमिका में अपने आप को वेस्ट करते हुए न्याय किया है. नसीरुद्दीन शाह को देख के लगता है की फिल्म में उन्हें बाकी किसी से कोई मतलब नहीं, नसीर अपने रोल से पूरी तरह कन्विंस दिखते हैं.
शायद ये एक इंटेलेक्चुअल फिल्म बनाने की कोशिश की गई है जो गले नहीं उतरती.
फिल्म में इसका एक गाना सुकून देता है लेकिन उसे भी देखने की बजाए आँख बंद कर सुनना ज्यादा सुहाता है.गाना शुरू होते ही पैर अपने आप थिरकने लगते है आप झूमना शुरू करते ही हैं की गाना ख़त्म हो जाता है और आप ठगा सा महसूस करते हैं.
कहानी में जब कुछ न हो तो कैमरा मैन के काम की तरफ भी ध्यान नहीं जाता.
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है की अच्छे एक्टर्स भी एक लचर कथा, पटकथा और ख़राब निर्देशन में बनी फिल्म को अच्छा नहीं बना सकते , इसका उदहारण "फाइंडिंग फेनी" है. एक बेहद ख़राब फिल्म जिसमे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह और डिंपल कपाडिया की वेस्ट होती हुई एक्टिंग को देख कर अफ़सोस होता है.
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