देहरी पे बैठे हुए दिखते हैं हम हमेशा मुझको, पीछे मुड़ के देखने पे कभी घर नही दिखता, याद नही कैसा था घर और अब फर्क भी क्या पड़ता है, तुम दिखते हो न बस इतना ही काफी है। देहरी पे बैठे हुए, पैंट मोड़ कर ऊपर पिंडलियों तक चढ़ाई हुई, बगल में बैठी मैं सोचती लड़कों के पैर भी क्या इतने साफ शफ्फाक हुआ करते है? मन करता छू लूँ लेकिन कभी हाथ बढ़ा ही नही , क्यों नही बढा ये कभी सोचा नही। तुम धीमे धीमे बोलते रहते मैं सुनती जवाब भी देती और आँखों से तुम्हारे पैरों को तुम्हे छूती रहती। तुमने भी कभी मेरी उँगलियाँ नही थामी , हमेशा चूड़ियों में उँगलियाँ उलझाये रहते।
टूट जाएगी
अच्छा! कह कर मुस्कुराते लेकिन उँगलियाँ वहीं रहती।
टुकड़े सहेज लूँगा
लेकिन वो उँगलियाँ कभी ऐसे उलझी ही नही की तुम टुकड़े सहेजो।
ये अधूरी सी बातें भी तो कभी अधूरी नही लगी। जो था पूरा था।
छत पर खड़े हो एक जलती सी खाली दोपहर कहा था जिस शहर में हो वहां की किसी सड़क किसी इमारत की एक फोटो तो भेजो।
जवाब में बेमौसम की बारिश आई थी और दप्प से बुझी दोपहर में धुआं भर गया था।
ज़ोर की खाँसी आई थी और इतना भर कहा था ऐसे भी किसी को कोई याद करता है भला।
उलहाना सुन तुम्हारी मुस्कुराहट बोली थी सब तो समझती हो तुम
तुम्हारी दस्तक कानो में पड़ी जब तुमने कहा कि मेरे खत शर्ट की जेब मे रख के चलते हो, सारी चिट्ठियों को सहेजने वाला डब्बा तो मखमली लाल है तुम्हारी शर्ट किस रंग की होगी जब वो सारे खत तुम जेब मे रखोगे। कौन सा रंग सबसे ज्यादा जँचता होगा तुम पर।
बातें ना अधूरी हैं ना पूरी, बस हैं और इनका एक सिरा तुमसे लिपटा रहता है
खुद से कहना जाती हूँ मैं
खुद से कहना आई मैं
ऐसा भी होता है न हल्की सी तन्हाई में
तन्हाई में तसवीरों के चेहरे भरते रहना
खुद से बातें करना और तुमसे बातें करना एक ही तो बात है, है ना!
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