Thursday, 19 June 2014

गीले आसमान पे चलते हुए
गहरे कहीं अटक गई थी एक याद,
बाँह पर रखा बोसा भी तो
चुभा था
करवट लेते हुए,
सुख की सांस ले उँगलियों ने बो दिए थे
सिरहाने
गुलमोहर के पीले फूल,
ठुड्डी के तिल को अंगूठे से दबा
बादामी रंगत वाली रात
एक सुर्ख नज़्म की ओक़ से
यादों ने भिगो लिया था
खुद को

तुम्हारा होना जरुरी तो नहीं था न!!

1 comment:

  1. कुछ सिखाती समझाती कविता...... बहुत सुंदर भाव

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