Tuesday, 10 June 2014

दौड़ते-सरकते लम्हे
जब
कुरेदें
पावँ के अंगूठे को
तो
उन्हें उठा कर टाँग पाऊं ,

गीली सी उंगलियाँ
उलझा कर
निशान लगा सकूँ ...
सिर्फ
दो रंग के ,

पीठ टिका
जब
काँधे ढीले करूँ
तो
न बैठे
परछाई कोई बगल में,

न कच्ची न पक्की
न आधी न पूरी
बिना किसी शर्त के तार से पगी ऐसी
दीवार हो जाना

तुम !

1 comment:

  1. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना.......... शुभकामनायें ।

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