Tuesday, 23 December 2014



एक ख्वाब था सादा सा

न आँखें थी न बातें थी न ही अर्ज़ियाँ थी,

न शब्द न ताने न उल्हाने

न पते थे न चिट्ठियाँ

और

न ही था इंतज़ार,




उन्ही भले दिनों में

सीपियों पर चलता लड़का

बेहद खुश था,
उसने सराब की कुछ बूदें
लड़की के प्यासे होंठों पर रख दी
दिशाहारा लड़की हँसती रही,
हँसती गई आबशार सी
और
डूब गई।

सपनो पर गिरहें बाँधते लड़के की जेब में
आज भी
पानी की बूँदें एक रेज़गारी सी खनकती हैं

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सराब ----मृगतृष्ण
आबशार----झरना
दिशाहारा- दिग्भ्रमित

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