कभी- कभी सोचता हूँ.......
मोतियों जैसी खनकती तुम्हारी हँसी
के ग़ुम होने का दोष किसे दूँ।
प्रेम झील सी गहरी आँखें
जो किसी के
दिल से ज्यादा गहरी थीं
उस झील के सूख जाने का
दोष किसे दूँ।
खामोश पलकों से मुस्कुराने को बाध्य
ऊपरी होंठों के सिकुड़ते आयाम
का दोष किसे दूँ।
अल्हड बलखाती ठुमक चाल के
सीधे हो जाने का दोष किसे दूँ।
गुनगुनाती हँसी से किसी को भी
आदेश देने की स्वतन्त्रता
संभल कर बोलने लगी
तो
दोष किसे दूँ।
अब भी
कभी- कभी सोचता हूँ...
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