सदियाँ गुज़र चुकीं
और
अभी न जाने कितनी सदियाँ गुज़ारनी हैं,
निहारते हुए
तुम्हारी मुस्कुराती आँखों को,...
जो झांकती हैं दीवार पर टंगे एक फ्रेम में से,
तुम्हारी कुछ आदतो के साथ
मेरा झगड़ा अब भी वैसा ही है
फिर भी
अपनी हज़ार न- नुकुर के बाद भी
एक हाथ से ज़मीन पोंछ,
दुसरे हाथ से तुम्हारी चप्पलें
वहीँ रख देती हूँ, दरवाज़े के उसी एक कोने में
सच के साथ तालमेल बिठाना सीख लिया है अब
तुम्हारा नहीं होना स्वीकारा है मैंने
बाहों पर तैरती तुम्हारी गुनगुनाहट
और
उँगलियों में उलझी तुम्हारी आदतों के साथ
तुमने अपने वादे नहीं लौटाए
और
मैंने अपनी हथेलियाँ नहीं सिकोड़ी
कहीं कोई सन्नाटा नहीं
कहीं कोई आहट नहीं
कोई शिकायत भी नहीं
लेकिन
तुम ही कहो तो
ऐसे भी भला कोई जाता है बिना बताये!!!
दिल को छु जाने वाले शब्द ....सुंदर भावपूर्ण रचना ...सादर
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