अन्दर का मौसन जब ठंडा लगता है, स्नो फ्लेक की तरह गिरती हुई ठण्ड नहीं बल्कि जमी हुईं ठण्ड , एक दुसरे कंधे आपस में छूते हैं फिर भी बीच में पसरी हुई ठण्ड पिघल नहीं पाती तो बाहर निकल के खड़ी हो जाती हूँ. चलती ट्रेन के दरवाज़े पे खडा होना , एक अजीब सी तसल्ली से भर देता है. अन्दर सब कुछ कितना सुकून भरा है, सुकून की कहीं कुछ भी नहीं बदलेगा, आज जो है कल भी बिलकुल इसी शक्लो-सूरत में दिखाई देगा , पूरी दुनिया जैसे एक बंद कमरे में सिमटी हुई, आरामदेह लेकिन बंद , लेकिन बाहर दरवाज़े पे खड़ा होना जीवन जीने जैसा लगता है, सर्द और गर्म के बीच में झूलने जैसा. ट्रेन की गति धीमी होती है अब वो धीरे धीरे सरक रही है, सामने से एक और ट्रेन गुज़रती है, मानो इससे मिलने के लिए ही गति कम की गई हो, सामने तुम दिखते हो, उसी तरह पायदान के ऊपरी हिस्से पे खड़े हुए, तुम उदासीन नज़रों से देखते हो मेरी तरफ , लगता है जैसे सिर्फ तुम्हारी आँखों ने देखा निगाहों ने नहीं, मैं एकटक देखती हूँ तुम्हे, तुम आँखें फेरते हो, हवा में तुम्हारे बाल कोई गीत गुनगुना उठते हैं, अचानक कोई भूली बिसरी याद तुम्हारे माथे उतरती है और तुम पलट कर पहचानी हुई निगाहों से मेरी तरफ देखते हो लेकिन तब तक दोनों ट्रेन्स एक दूसरे को लगभग पार कर चुकती है , मैं परेशान नहीं होती, यही तो ज़िन्दगी है, जब तक पहचाना हम अलग हो चुके होते है, क्या फर्क पड़ता है, फिर मिलेंगे किसी मोड़ पर किसी तिराहे पर, ये पटरियां यूँ ही बिछी रहेंगी और उन पर ये ट्रेन्स भी हमें लिए यूँ ही दौड़ती रहेंगी, फिर जब कभी हम एक दूसरे के सामने से गुजरेंगे तो आँख भर जी लेंगे एक दूसरे को, सब्र है मुझमे बहुत.
खुले दिल से जीना ही जीना है बंद कमरे में घुटना मौत से बदतर है ...
ReplyDeleteमन के उधेड़बुन का सुन्दर प्रस्तुतीकरण
सुंदर लेखन ।
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