Wednesday, 31 August 2016


                                                       उसकी मर्ज़ियाँ 







क्या कर रही हो?
जीने का सामान संजो रही हूँ.
दर्द पाओगी !


मुस्कुरा के मैंने रिकॉर्डर बंद कर दिया, क्या जरुरी है की उसकी जानकारी में ही रिकॉर्ड की जाए उसकी आवाज़।


    एक चेहरे को नींद में डूबा  हुआ देखना सुकून भर होता है , कितनी शान्ति , धीमे से हथेलियों को उँगलियों में उलझाती हूँ तो वो चेहरा मुस्कराहट की डुबकियां लेने लगता है, स्पर्श की भी अपनी भाषा होती है ये तुमने ही मुझे समझाया।  तुम्हारी आँख खुले उसके पहले रो लेना चाहती हूँ, तुम नींद में बोल उठते हो
पास रहोगी न ? हमेशा ?

हमेशा ! इस से अलग कुछ कह सकती हूँ भला!!!


हम कभी इस कमरे से निकल हरी घास पर बैठेंगे या नहीं , नहीं जानती , रोज़मर्रा की किसी मामूली सी बात पर कभी झगड़ेंगे या नहीं , नहीं जानती, तुम्हे क्या कुछ नुक्सान देता है इस लिस्ट को कभी अनचेक कर पाउंगी या नहीं, नहीं जानती, अब तो कुछ भी जानना नहीं चाहती.

  तुम्हारी साँसों को सुनना राहत भरा होता है, आज शायद तेज़ हैं साँसें, कल तो इतनी तकलीफ नहीं थी ?,
 तुम हँस देते हो ,
आज भी नहीं है, तुम हो न सब दिन।
नींद आ रही है ?
नहीं, तुम आ रही हो.
जैसा तुम्हारा मन होगा वैसी ही साँसें होंगी मेरी , सीने पे हाथ रख तुम किसी फ़िल्मी नायक की तरह मुस्कुरा देते हो और मैं  तुनक उठती हूँ.

अच्छा सुनो
हम्म
आई लव यू
हम्म
सुनती भी नहीं हो
सुन तो लिया


तुम लिखा करो न
लिखती तो हूँ
यूँ नहीं, कविता लिखा करो
लिखी ना "तुम"
जब चला जाऊँगा तब तो लिखोगी न
तुम एकटक देखते हो मेरी तरफ, मैं निगाह नहीं मिलाती , जानती हूँ उदास आँखों में और ज्यादा उदासी संभाली नहीं जाएगी.

बहुत दुःख पाओगी
हम्म, अभी भी सुखी हूँ और हमेशा रहूंगी
क्या सुख है , ज़रा कहो तो
तुम नहीं समझोगे


तुम नहीं समझोगे कह कर कितना कुछ तो कहा जा सकता है और कितना कुछ सुना जा सकता है.







परदे बंद कर दो
क्यों, अच्छी धूप है
नहीं चाहिए, आँखों में चुभती है, वैसे भी एक दिन तो इस खाली कमरे में रौशनी को ही रहना है



साँसों को सुनते , घर घर खेलते रात चलती है सुबह की तरफ।


इस कमरे में मुझे खूब सारे रंग चाहिए
क्यूँ
देखो न हर तरफ सफ़ेद-सफ़ेद  तुम बोर नहीं होते?
तुम मुझसे बोर हो सकती हो कभी

(ये प्रश्न नहीं था , उदासी में डूबी हुई जिज्ञासा भर थी, समझने लगी हूँ, प्रेम भी आश्वासन मांगता है)

हद्द है, कहाँ की बात कहाँ ले जाते हो,
तुम पहना करो न सफ़ेद रंग तुम पर अच्छा  ....

बोलते बोलते तुमने मेरा फीका पड़ा चेहरा देख लिया और तुम्हारे शब्द हम दोनों के बीच टंगे रह गए.



सुनो ! कुछ सुनाती हूँ.
ह्म्म्म

"कितनी तेज़ हवा चल रही थी उस समय,
अगर तुम्हारा एक आंसू
इस कागज़  होता
तो यह कब का उड़ चुका होता."

किसने लिखी  है।
गीत चतुर्वेदी , कितना अच्छा लिखा है न.
हाँ, मगर मेरी आँखों से दिल  के बीच एक बड़ा सा खला है, वहीँ सब रह जाता है उसे तुम्हारे अलफ़ाज़ ही पार कर पाते हैं.



हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए
मन मेंकोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।





इब्ने इंशा न?
ह्म्म्म
आगे सुनोगी?
इनको सुन ने के लिए तो जलते अलाव और तुम्हारे पहलू वाली रात चाहिए।
दो में से एक तो है ही
तुम्हारी मुस्कराहट पर मैं बलिहारी।





ढेर सारी सीडीज़ इकट्ठी हो गई हैं, बिना किसी दिन बिना किसी तारिख के बोझ को उठाये हुए, तुम्हारी आवाज़ के साथ ठहर कर खड़े उस लम्हे को दुबारा जी लेती हूँ, फर्क क्या पड़ता है की वो अक्टूबर के कुनमुनाते दिन थे या ठन्डे पानी से तुम्हारे स्पर्श को जोहती जून की उबली उबली सी रातें।

मिचमिची आँखों से बारिश की आवाज़ सुनती हूँ , सीवन जगह-जगह से उधड़ने सी लगी है , संभाल रखा है फिर भी दरारों में से बहुत कुछ फिसल ही जाता है, वैक्यूम में कोई मौसम पग फेरा नहीं करता, बिसरी राहें, पहचान लिए, अँगूठे में बंध जाती हैं,




सब से ज़्यादा वज़नदार, *खाली जेब होती है...* साहब चलना मुश्किल हो जाता है..... 


              












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