Tuesday, 12 August 2014

दरवाज़े से टिक कर खड़ी वो महबूब का रस्ता देखती रहती थी, इंतज़ार की सारी सतरें चुन लेने के बाद भी जब कुछ न बुना जाता तो वो गहरी सांस ले पलट जाती लेकिन उसके कान बाहर रस्ते पर ही अटक जाते, हवा भी गुजरती तो वह उम्मीद की एडियों के बल घूम जाती और इस लायक भी न रह पाती की अपने आंसुओं की गर्मी महसूस कर सके . गेट के बाहर सड़क किनारे लगे पेड़ आपस में भले ही कभी न बोलतें हों लेकिन उसकी इस हालत पर सारे पेड़ों की सारी पत्तियाँ खिल-खिल हँस पड़ती और उनके हँसते ही बारिश की जमा बूंदों को नीचे धरती पर कूदने के हज़ारों-हज़ार बहाने मिल जाते. अपनी एक शिकायत जो उसने मुट्ठी में दबा रक्खी थी सोचती की पत्तों पर लिख कर उड़ा दे या अंतस में गहरे कंही दबा ले.
                                                                                      अपना  चश्मा उतार मैंने  अपनी कनपटियाँ दबाते हुए डायरी बंद कर दी . मैं  हमेशा ही कहानी लिखना चाहती हूँ और बैठती भी हूँ  कहानी ही लिखने लेकिन हर बार अपना मन डायरी पे लिख उठ जाती हूँ  . पता नहीं इस बार भी मुझसे  ये कहानी लिखी जा पाएगी या नहीं.


( शायद कभी दरवाज़े पे  या किसी गली किसी सड़क पर इस कहानी से  मुलाकात हो ही जाए तब तक सिर्फ इंतज़ार.)

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