तुम्हारी एक हलकी सी आहट
और मुस्कराहट पाँव पसार कर बैठ गई
हमने साथ में बरसों के चावल बीने
और
दिनों के कंकर उठा
खिड़की से बाहर फेंके ,
बनफशा के फूलों सी
रात की स्याही में
सपनो की नावें खेई
पलकों पे धरी ओस की बूंदों को
तारों की धूप से थपक सुला दिया ,
अब
बेतरतीब सी बैठी हूँ
आओ
सिखा जाओ मुझे भी
हुनर
वापस लौट पड़ने का !!
और मुस्कराहट पाँव पसार कर बैठ गई
हमने साथ में बरसों के चावल बीने
और
दिनों के कंकर उठा
खिड़की से बाहर फेंके ,
बनफशा के फूलों सी
रात की स्याही में
सपनो की नावें खेई
पलकों पे धरी ओस की बूंदों को
तारों की धूप से थपक सुला दिया ,
अब
बेतरतीब सी बैठी हूँ
आओ
सिखा जाओ मुझे भी
हुनर
वापस लौट पड़ने का !!
बनफशा के फूलों सी.........
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