Tuesday, 31 December 2013

मेरे शब्द ,
अब
मुझसे भी कुछ नहीं कहते ,
चुप से खड़े हैं
परछाईयाँ थामे ,
कर दिया है
उनका श्राद्ध ,

प्रेम के मन्त्रों ने
अपने तारों को बमुश्किल सुर में रख ,
पहलु से उठ ,
जाता हुआ साल
बहुत कुछ दे गया
जैसे
...

महबूब ने रख दिए हो नमकीन से
बोसे
होठों पर

Monday, 30 December 2013

सब कुछ साफ़ साफ दिखना बुरा होता है ,
बुरा होता है हर सवाल का जवाब मिलना ,
कुछ बचता ही नहीं ,
ना मेरे पास ना तुम्हारे ,
जैसे ,
गोता लगाओ प्रेम के समंदर में ,
और ,

निकल आओ साबुत बच के .

गीली रेत पर पड़े
अपने पैरों के निशाँ
वापस लौटा लो ईश्वर ,
मुझे रखना है
माथे ,
प्रेम को
दो विपरीत ध्रुवों के बीच ,
संतुलन नाप ,
रस्सी पर झूलती नटनी ,
गिरना जाने बिना संभलती है ,
पार कर जाती है फासले
अंगूठे और ऊँगली के
बीच बैठी
खाली जगह के सहारे

बांच रक्खी हैं भाग्यरेखायें
प्रेम ने ।

Sunday, 29 December 2013

उजड़ते हुए भ्रम
छोड़ जाते हैं ,
अहेरी  लम्हों से
 आबाद,
एक संकरी सी गली ,
मुहाने पर खड़ी
नाप डालती हैं कोना - कोना ,
  उम्रदराज़ मुस्कुराहटें ,
झुर्रियों सा इंतज़ार
कानो को हाथो की ओट दिए ,
कमर दुहरा लेता है ,
व्यग्र सा ,
सुनने को तेरी एक आवाज़।

...दरवाज़े से  ,
जमीन का साथ देती
 झिर्री से गुजरी ......
.एक चिट्ठी ,
 अधुरा सा अपनापन लिए हुए ,
तैरे थे एकांत ओढ़े शब्द इति कहने के बाद भी ,
अंतस में रक्खे   एक चिंगार  ने तापे थे  बीते अनकहे से  बरस ,
सिरहाने रक्खी नीम की पत्तियों ने सेके थे कुछ कुहासे ,
 पारन्ति के फूलों को ज़बान  पर घुलाती ,
  अजनबियत का गिलाफ ओढ़े
रिश्तों को,
काढ़ा सा पीती,
कसांद्रा का शाप कांधों  पर उठाये
ढो रही हूँ अग्यातवास .

Tuesday, 24 December 2013

हज़ारों -हज़ार वर्षों के
फलक पर पसरे
तमाम मिथकों को
हथेलियों से ढकती,
गिरहो को कमर
के पीछे दुबकाती ,
एक हाथ की पीठ के दर्द को
कांधा देती ,
झाँक आती है सात कुएं
गढ़ी हुई कुछ उम्मीदों के लिए,
दरवाज़े के बाहर
बंद सांकल के पीछे
खड़ी हुई वो लड़की
नहीं घूमती तुम्हारी धुरी पर
तो
सहेज ले जाती सारे मौसम ।

Tuesday, 17 December 2013

तुम्हे सोचते हुए

सर्द ख्वाहिशें
अनजान मैं
अनकहे अबूझे शब्द
मैं और मेरा मैं
सात परिक्रमायें और सात रंग
उदासी की मुस्कान
एक बूँद खारा पानी
अधूरे स्वप्न और पूर्णविराम...
नीरव स्मित पंक्तियाँ
स्याह पुष्प और श्वेत रात्रि
संबोधन का अंत

तुम्हे होना चाहिए था

कुछ मुस्कुराता , कुछ सकुचाता ,
सुफेद से लिबास में ,
अभी कल की ही तो बात है
वह मेरे साथ था
मगर
जैसे चलते-चलते
कहीं रुक गया
या
बेबस हो ठहर गया
क्यों बाँहें फैलाए आवाज़ देता है ...
सच-झूठ की नीम नींद से परे
बढ़कर साथ क्यों ना आ पाता है
शायद
प्रारब्ध से बंधा है कहीं
वह मेरा बचपन
वह मेरा महबूब .

Saturday, 14 December 2013

स्मृतियों की बैसाखी कंधों के नीचे लगाये ,
खड़ा होने की कोशिश करता
ये है प्रेम?
आ सकने वाले पल से पीठ मोड़े,
बीत चुके लम्हों की गंध से
उदासी के रेशे चुनता ,
ये है प्रेम?
या फिर
जो कहा नहीं गया ,
कानो से गुजरे बिना
कहीं ठहर गया,
उग आया
कांधों  से फिसलता हुआ
गर्दन के पास
ये है प्रेम?





क्या है प्रेम?

Friday, 13 December 2013

जज़्ब कर लेती हैं
बारिश की बूँदें
सीढ़ियों पर बैठी लड़की की परछाई को,
लिख रहा हो जैसे कोई
चिट्ठी
किसी की आमद के इंतज़ार मे ,

सड़क पर पड़ा
निम्बोली सा धूप का एक टुकड़ा ,
 इस शहर के उदास मौसम में ,
बाट जोहता है ,
हमेशा से लिखी जा रही चिट्ठियों के लिए
नाम -पते का ,
सरहुल की रात भी
नहीं लौटा पाती
हवा में घुलते शब्द
जो लिखे थे
जादुई स्याही से
दरकते मौसमो ने।











(झारखण्ड-छत्तीसगढ़ के सीमान्त पर, अरण्य में अब भी आलिंगनबद्ध युगल की शैलाकृति है। उपर्युक्त दन्तकथा के आधार पर, लोकमान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के मिलन के महान आदिवासी वसन्तोत्सव पर्व ‘सरहुल’ की रात में इस कृष्णवर्ण शैलाकृति पर चिंया (इमली के बीज ) घिसकर पीने से मनचाहा जीवन-साथी मिलता है)







Thursday, 12 December 2013

अपना आप कभी-कभी  उस आग  कि तरह लगता है जो सुलग रही है धरती के गर्भ में , जलाती  है खुद को , बिना किसी को सेंक दिए हुए , न किसी के पेट भरने का जरिया न कुछ पल चैन से काटने का , जिसकी नियति है बिना वजह पूछे बिना कारण जाने सुलगते रहना 

Wednesday, 11 December 2013

प्रेम से टूट कर
परछाई का एक टुकड़ा
लिपटा रहता है एडियों से ,
बैठी रहती है
उकडू
एक चीख ,
दर्द से बेरूख ,
देखे जाते हैं कुछ ख्वाब सिर्फ
आँखों के खालीपन को भरने के लिए
ताकि
बची रहे उनकी
किशमिश सी मिठास ,
देह से इतर
कुछ शब्दों को पढना
औफ़ियस के बजते इकतारे में।

Tuesday, 3 December 2013

उम्मीदों के पंख पखेरू उड़ जाते हैं
नीले गहरे आसमान में ,
चुप सी पड़ जाती है उसकी पसलियों में ,
दुहरे कंधे लिए बुहार डालती है अपना आप ,
खींच निकाल तलवों से किरचें ,
फेंक आती है सड़क के दूसरी तरफ
बुरुंश की झाड़ियों के पीछे ,
सब कुछ वापस कर लिया है
अब की बार उसने ,
किसी भी मौसम के गुजरते रहने के लिए ,
खत्म हो ही जाती है
एक दिन
उम्र कैद भी !!!