Thursday 6 March 2014

छत के किसी कोने में मुंडेर से लगी हुई ,
कभी किसी तिराहे पर कबूतरों को दाना चुगाती ,
रंग खोती  हुई इस सांझ पे उतर आये रात उससे पहले
लिखनी है अपनी आखिरी चिट्ठी तुम्हे इस शाम
जिसमे होगी महक मेरे लहू की
अक्षरों को ले बैठी होंगी साँसे मेरी
तुम बीन लेना मेरी आवाज़
और
भर लेना  अपनी खाली जेबें
मैं रख लूंगी तेरी याद की एक सिगड़ी
और
हर मौसम , इस शाम
लिखती रहूंगी चिट्ठियां
 उनके
आखिरी होने तक

1 comment:

  1. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

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