Tuesday 31 December 2013

मेरे शब्द ,
अब
मुझसे भी कुछ नहीं कहते ,
चुप से खड़े हैं
परछाईयाँ थामे ,
कर दिया है
उनका श्राद्ध ,

प्रेम के मन्त्रों ने
अपने तारों को बमुश्किल सुर में रख ,
पहलु से उठ ,
जाता हुआ साल
बहुत कुछ दे गया
जैसे
...

महबूब ने रख दिए हो नमकीन से
बोसे
होठों पर

Monday 30 December 2013

सब कुछ साफ़ साफ दिखना बुरा होता है ,
बुरा होता है हर सवाल का जवाब मिलना ,
कुछ बचता ही नहीं ,
ना मेरे पास ना तुम्हारे ,
जैसे ,
गोता लगाओ प्रेम के समंदर में ,
और ,

निकल आओ साबुत बच के .

गीली रेत पर पड़े
अपने पैरों के निशाँ
वापस लौटा लो ईश्वर ,
मुझे रखना है
माथे ,
प्रेम को
दो विपरीत ध्रुवों के बीच ,
संतुलन नाप ,
रस्सी पर झूलती नटनी ,
गिरना जाने बिना संभलती है ,
पार कर जाती है फासले
अंगूठे और ऊँगली के
बीच बैठी
खाली जगह के सहारे

बांच रक्खी हैं भाग्यरेखायें
प्रेम ने ।

Sunday 29 December 2013

उजड़ते हुए भ्रम
छोड़ जाते हैं ,
अहेरी  लम्हों से
 आबाद,
एक संकरी सी गली ,
मुहाने पर खड़ी
नाप डालती हैं कोना - कोना ,
  उम्रदराज़ मुस्कुराहटें ,
झुर्रियों सा इंतज़ार
कानो को हाथो की ओट दिए ,
कमर दुहरा लेता है ,
व्यग्र सा ,
सुनने को तेरी एक आवाज़।

...दरवाज़े से  ,
जमीन का साथ देती
 झिर्री से गुजरी ......
.एक चिट्ठी ,
 अधुरा सा अपनापन लिए हुए ,
तैरे थे एकांत ओढ़े शब्द इति कहने के बाद भी ,
अंतस में रक्खे   एक चिंगार  ने तापे थे  बीते अनकहे से  बरस ,
सिरहाने रक्खी नीम की पत्तियों ने सेके थे कुछ कुहासे ,
 पारन्ति के फूलों को ज़बान  पर घुलाती ,
  अजनबियत का गिलाफ ओढ़े
रिश्तों को,
काढ़ा सा पीती,
कसांद्रा का शाप कांधों  पर उठाये
ढो रही हूँ अग्यातवास .

Tuesday 24 December 2013

हज़ारों -हज़ार वर्षों के
फलक पर पसरे
तमाम मिथकों को
हथेलियों से ढकती,
गिरहो को कमर
के पीछे दुबकाती ,
एक हाथ की पीठ के दर्द को
कांधा देती ,
झाँक आती है सात कुएं
गढ़ी हुई कुछ उम्मीदों के लिए,
दरवाज़े के बाहर
बंद सांकल के पीछे
खड़ी हुई वो लड़की
नहीं घूमती तुम्हारी धुरी पर
तो
सहेज ले जाती सारे मौसम ।

Tuesday 17 December 2013

तुम्हे सोचते हुए

सर्द ख्वाहिशें
अनजान मैं
अनकहे अबूझे शब्द
मैं और मेरा मैं
सात परिक्रमायें और सात रंग
उदासी की मुस्कान
एक बूँद खारा पानी
अधूरे स्वप्न और पूर्णविराम...
नीरव स्मित पंक्तियाँ
स्याह पुष्प और श्वेत रात्रि
संबोधन का अंत

तुम्हे होना चाहिए था

कुछ मुस्कुराता , कुछ सकुचाता ,
सुफेद से लिबास में ,
अभी कल की ही तो बात है
वह मेरे साथ था
मगर
जैसे चलते-चलते
कहीं रुक गया
या
बेबस हो ठहर गया
क्यों बाँहें फैलाए आवाज़ देता है ...
सच-झूठ की नीम नींद से परे
बढ़कर साथ क्यों ना आ पाता है
शायद
प्रारब्ध से बंधा है कहीं
वह मेरा बचपन
वह मेरा महबूब .

Saturday 14 December 2013

स्मृतियों की बैसाखी कंधों के नीचे लगाये ,
खड़ा होने की कोशिश करता
ये है प्रेम?
आ सकने वाले पल से पीठ मोड़े,
बीत चुके लम्हों की गंध से
उदासी के रेशे चुनता ,
ये है प्रेम?
या फिर
जो कहा नहीं गया ,
कानो से गुजरे बिना
कहीं ठहर गया,
उग आया
कांधों  से फिसलता हुआ
गर्दन के पास
ये है प्रेम?





क्या है प्रेम?

Friday 13 December 2013

जज़्ब कर लेती हैं
बारिश की बूँदें
सीढ़ियों पर बैठी लड़की की परछाई को,
लिख रहा हो जैसे कोई
चिट्ठी
किसी की आमद के इंतज़ार मे ,

सड़क पर पड़ा
निम्बोली सा धूप का एक टुकड़ा ,
 इस शहर के उदास मौसम में ,
बाट जोहता है ,
हमेशा से लिखी जा रही चिट्ठियों के लिए
नाम -पते का ,
सरहुल की रात भी
नहीं लौटा पाती
हवा में घुलते शब्द
जो लिखे थे
जादुई स्याही से
दरकते मौसमो ने।











(झारखण्ड-छत्तीसगढ़ के सीमान्त पर, अरण्य में अब भी आलिंगनबद्ध युगल की शैलाकृति है। उपर्युक्त दन्तकथा के आधार पर, लोकमान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के मिलन के महान आदिवासी वसन्तोत्सव पर्व ‘सरहुल’ की रात में इस कृष्णवर्ण शैलाकृति पर चिंया (इमली के बीज ) घिसकर पीने से मनचाहा जीवन-साथी मिलता है)







Thursday 12 December 2013

अपना आप कभी-कभी  उस आग  कि तरह लगता है जो सुलग रही है धरती के गर्भ में , जलाती  है खुद को , बिना किसी को सेंक दिए हुए , न किसी के पेट भरने का जरिया न कुछ पल चैन से काटने का , जिसकी नियति है बिना वजह पूछे बिना कारण जाने सुलगते रहना 

Wednesday 11 December 2013

प्रेम से टूट कर
परछाई का एक टुकड़ा
लिपटा रहता है एडियों से ,
बैठी रहती है
उकडू
एक चीख ,
दर्द से बेरूख ,
देखे जाते हैं कुछ ख्वाब सिर्फ
आँखों के खालीपन को भरने के लिए
ताकि
बची रहे उनकी
किशमिश सी मिठास ,
देह से इतर
कुछ शब्दों को पढना
औफ़ियस के बजते इकतारे में।

Tuesday 3 December 2013

उम्मीदों के पंख पखेरू उड़ जाते हैं
नीले गहरे आसमान में ,
चुप सी पड़ जाती है उसकी पसलियों में ,
दुहरे कंधे लिए बुहार डालती है अपना आप ,
खींच निकाल तलवों से किरचें ,
फेंक आती है सड़क के दूसरी तरफ
बुरुंश की झाड़ियों के पीछे ,
सब कुछ वापस कर लिया है
अब की बार उसने ,
किसी भी मौसम के गुजरते रहने के लिए ,
खत्म हो ही जाती है
एक दिन
उम्र कैद भी !!!

Saturday 23 November 2013

हिलती-डुलती नींद से अचानक ही आँख खुल गई शायद ट्रेन के एक झटके से रुकने
की वजह से ,
सूरज निकला नहीं था और हवा में ठंडक भी थी , ट्रेन की खिड़की से रौशनी की
बाट जोहता  बाहर का
नज़ारा खूबसूरत था ,उच्छवास ने भी जानना चाहा  की  ट्रेन
किस जगह रुकी है , क्षितिज में हलकी सी रोशनी ढूँढने की कोशिश की लेकिन
अँधेरा था , हल्का सा अँधेरा , इतना हल्का की लगा सुबह बस रास्ते में ही
कहीं है , आँख खुलते ही उठना जरुरी लगता है लेकिन होता तो नहीं जरुरी,

उठते ही तो स्मृतियाँ परजौट माँगने लगती हैं , ऊसर मन चुका नहीं पाता

ट्रेन कहीं बीच में रुकी थी , किन्ही दो शहरों के बीच , किसी एक शहर के
ज्यादा करीब ,  पीछे छूट चुके
शहर की याद आते ही मन कोल्ड कॉफ़ी की महक से भर उठा और बेसाख्ता होठों से
फिसल पड़ा एक शब्द - कोल्ड कॉफ़ी , मन भी ऐसे ही समय चौपड़  बिछा बैठ जाता
है और कर लेता है सारी कौडियाँ अपनी तरफ , नाम की
याद की जगह किसी एक पल को सामने ला खड़ा करता है , और आ जाती है बहुत सारे
लम्हों के साथ मुस्कराहट और नमी एक साथ , सहयात्री ने कहा इतनी सुबह और
ठण्ड में कोल्ड कॉफ़ी ? क्या सहेजा हुआ नाम भी बेध्यानी में ऐसे ही निकलता
है , मुस्कुराते हुए एक चाय वाला ढूंढ निकाला , उसने कांच के गिलास में
चाय डाल मेरी तरफ बढाई , इनकार में सर हिलाते हुए मैंने कुल्हड़ में चाय
मांगी , हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए उसने कंधे उचकाये और कुल्हड़ में
चाय दे दी ,  कन्धों पे हमेशा ही पुरानापन पसरा रहता है , हथेलियों
से कुल्हड़ थाम कोल्ड कॉफ़ी की गर्माहट के साथ मैंने अदरक वाली चाय की एक
घूँट भरी और पीछे रह गए शहर को पीते हुए आगे आने वाले अपने शहर की भीड़
में मन को खो दिया

Thursday 14 November 2013

एक थी मैं
जो
बेख़ौफ़ मुस्कुराती
और
एक थी मैं
जो
खोज में खुशियों की
भीड़ में खो जाती
एक थी मैं
जो
दीवारों से बेखबर
हर घर में जाती
और
एक थी मैं
जो
अपने घर के वजूद के सपने
को
तरस जाती।

Wednesday 13 November 2013

खतों से , तस्वीरों से  निकलती एक पुरानी हंसी कितना हल्का कर देती है हमें ,  और वहीं जमीन पर पाँव फैलाए सामान के ढेर के

बीच कहकहों को तलाशने लग जाते हैं , सर्दी ,गर्मी ,बरसात  हर  मौसम इनके बिना ना होने जैसा लगता है , चाय  का प्याला

 हथेलियों में लो तो जब तक वो यादों से लिपटा  न हो तो उसकी गरमाई का अहसास हथेलियों से होकर सीने में उतरता ही नहीं।
                                                              कई बार छत पर  चाय का प्याला  हाथ में लेते ही लगता
है  किसी  ने पीछे से आ कर  काँधों  पे शाल डाल  दी ,हम हँस  कर पीछे मुड़ पड़ते हैं और अपनी ही साँसों की गरमाई से आँखों में

 धुआँ  सा छा  जाता है ,सामने की कुर्सी कभी खाली लगी ही नही,  वो मुस्कुराहट ,वो  गुनगुनाहट रूह में अभी तक महफूज़ है.


                              
                                                                                          
                                                                                                   सुना था सदियाँ गुजर जाती हैं और लम्हे सारी उम्र  खुद में कैद अक्सर पाजेब के घुंघरुओं की तरह छन  से बज उठते हैं ,   अब  तो आदत सी हो गई है,  कैसे हर छोटी - छोटी, गैर - मामूली  सी चीज़ भी आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाती है ,नींबू  हाथ में लेते ही आवाज़ सी आती है --------भई नींबू -पानी पिला दो और सुनो जरा  नमकीन ही बनाना शक्कर ज्यादा ना डालना ,बड़ा मन करता है चिलचिलाती धूप  में उस शहर के उस दरवाज़े पे दस्तक दे के पूछने का तुम अब भी उतना ही नमकीन नींबू -पानी पीते हो या ये पसंद भी बदल गई है . पता नहीं कोई मुझसे रूठ गया या मैं ही सबसे रूठ गई ,ये रूठना-मनाना कब अबोला हो गया ध्यान ही नहीं।

Thursday 7 November 2013

उन्ही चिट्ठियों से फिर गुज़रना
  सीधी सड़क पे
पीछे रह गए मोड़
पर ठिठकना

मुस्कराहट शैतानी भरी
छू आती है
एक
शांत स्मित
उलझा जाती हैं पैरों को
बेसबब बातें
ललचा उठती हूँ
तुम्हे गुनने को !!

Wednesday 6 November 2013

एक धसका सा उभरता है सीने में,
सर पर थपक की इक्षा लिए हुए,
अटकी पड़ी है एक हिचकी
आने और
नाम के साथ गुज़र जाने की
प्रतीक्षा में ,
घुप्प अँधेरे की आदी उंगलियाँ
निकाल लाती हैं संदूकची
रख तो गए हो
परिभाषा से बिछड़ा
असीमित स्नेह !!

Tuesday 5 November 2013

द्वार वार्ता के बाद
लगती हैं गले
मुड़ती भी हैं
लेकिन
सीख नहीं पाती
लेना विदा
स्मृतियाँ

Saturday 2 November 2013

शून्य से नीचे तापमान में बचे रहने के लिए
            करती है धूप की तरफ चेहरा
                     गिरते हैं उल्का पिंड
     जलते हुए चेहरे के साथ लेती हैं पींगे ,

       ख्वाबों में भी नहीं आते
         अब
 हरसिंगार के फूल

Wednesday 30 October 2013

कितने अर्थ निकलती है वो लड़की ,
हर तरह के
सहमे ,ठन्डे
और
कभी लहुलुहान करते पोरों को
गोदी में लिए शब्दों को
खड़ी रहती है चुप
प्रतीक्षारत
काँधे से लगा
थपक सुला दे इन शब्दों को
हाथ नीचे कर
बिना टेक खड़ी हो सके
रस्ते भी  दे सके उसे असीस

Sunday 27 October 2013

मेरी प्रिय,
देता रहा हूँ
ह्रदय प्यार
तुम्हे अनवरत,
लेकिन
कतिपय अवसरों पर
तुम भी
प्रेम नही,
प्रेम अभिनय की
आकाछिंत हो उठती हो,
इस अभिनय में चूकने पर,
"जिद के आगे हारा प्यार मेरा"
कह बैठती हो,
मान लेती हो
प्रेम पगे पलों को भी अभिनय
अतः
अब मैं भी,
प्रेम ह्रदय से नही,
मस्तिष्क से करने के लिए,
इस वांछित अभिनय में,
दक्षता के लिए,
चेष्टारत हूँ !!!!

Thursday 24 October 2013

छनाक ,
          कुछ टूटा
      मैं दौड़ी चली आई
मन को तो सहेज कर
                         आले में रख दिया था
           फिर कैसे चूर हो गया
उसे मछलियों  को उस कांच के गोल बर्तन में देखना बहुत पसन्द था ,कैसे मुंह खोले इधर से उधर दौड़ती रहती है ,सुनहरी मछली की  सारी दुनिया ही वही है वो छोटा सा गोला , उसका मन करता छू ले , कभी छुआ नहीं उसने , वो शाम होने के बाद और रात होने से पहले के जैसे रंग वाले चुप से  कुरते  को  उठा आईने के सामने अपना पेट देखने लगी -- अगर इसमें मछलियाँ हो तो ?, तो  वो उन्हें महसूस कर पाएगी . एक सच की मकड़ी ने कितने सारे झूठ  के जाले बुन  दिए उसके चेहरे के इर्द-गिर्द , कहते हैं , कौन कहता है पता नहीं उसने तो सुना था , की जहाँ  मकड़ी चल जाती है वहां फफोले पड़  जाते हैं , लेकिन उसे  फफोले दिखने की बजाए महसूस होते थे , सफ़ेद आँखों से  उसने फिर से पेट  को  देखते हुए सोचा  अगर मछलियाँ होती तो इधर से उधर दौड़ती ,सोच में वो मुस्कुराने लगी , देखा उसका पति दरवाज़े पे खड़ा देख रहा था , कुरता हाथों से छूट खुद-ब-खुद नीचे हो गया , आईने के सामने से हट कर वो उसके बगल से हो कर बाहर  जाने लगी .
                                  बीमार हो ?
                       ----     नहीं !
        मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ बोलती क्यों नही
हैरान कर देती है ये बात उसे की किसी को उसकी आवाज़ सुनाई   नहीं देती ,अपना कलेजा रख के बोले फिर भी  किसी के कानो  में   कुछ होता ही  नहीं , सर हिला कर  उसने पति को मना का इशारा किया ,अक्सर वो अचकचा जाती है इस ख्याल से की उसकी तरफ देखने वाले उसकी  आवाज़ नहीं सुन पाते , बाहर निकलते हुए उसने इस ख्याल को दरवाजे के पीछे सरका दिया ,ऐसे ख्यालों को रखने  के लिए उसे ये सबसे महफूज़ जगह लगती है , अब उसे अपनी आवाज़ की फिकर के साथ साथ और तरह की फिकर भी  होने लगी , पता नहीं उसे आंसू  भी  मिले   हैं या नहीं ,सोते में तो अक्सर रो लेती है फिर उसने आंसू देखा क्यूँ नहीं ,वो लुढ़कते हुए आंसुओं को देखना चाहती थी , अपने खाली  पोरों को देखती -अगर इस्पे आंसू धरा होता तो कैसा दिखता ,  सुना था उसने आँखों के कोनो पे आंसुओं की थैली होती है , बहुत ढूँढा उसने वहां उसे सफेदी के सिवा कुछ मिला ही नहीं , आँखें मिचमिचा कर  बहुत कोशिश की उसने आंसुओं को देखने की  फिर उकता कर वो सोने चली गई . लेटने पर उसे सांस नहीं आती , पहले तो ऐसा  नहीं होता था , सीने पर रखा पत्थर हटाने की कोशिश की , नहीं हटा तो उठ कर छोटी सी खिड़की से चेहरा  बाहर निकाल खड़ी  हो गई , कई बार उसे कोफ़्त होती खिड़की के छोटे होने से और उस छोटी सी खिड़की को और छोटा करते उसमे लगे हुए सरियों से ,खिड़की से उसने उस औरत को  जाते हुए देखा . सारे ख्याल ,  देखे-अनदेखे ,सुने - अनसुने  सब उस औरत के पीछे चल दिए .
                                                         दिन निकलते ही उसे अपना सबसे जरुरी काम याद हो आया , उस औरत से मिलना था उसे . उसे लगा था की उस औरत के घर वाले रस्ते अजीब से होंगे  , पता नहीं कैसे लेकिन कुछ अजीब  ,कुछ भी तो अलग सा नहीं था ,वैसे ही कुछ हरे कुछ कम हरे से पेड़ थे , वैसे ही धूल  बिखरी   हुई थी जो उसके पैरो से उडती हुई कपड़ो पे आ रही थी , आम रस्तों से कुछ भी तो अलग नहीं था इस रास्ते में , चलते हुए उसकी सोच उससे आगे चल रही थी , सारे रस्ते तो बिलकुल वैसे ही थे बाकी हर रस्ते जैसे .चिलचिलाती धूप महसूस नहीं हुई ,  वो उस औरत के सामने  खड़ी  हो गई चुपचाप . मोटी-मोटी काजल से काली आँखें , मुंह में पान था शायद  या नहीं पता नहीं लेकिन हंसी जरुर गुलकंद सी मीठी और पान सी लाल थी.
                           कुछ चाहिए ? पूछा उस औरत ने 
दोनों ही हैरान थी एक दूसरे के सामने  खड़ी हो कर
                          कुछ नहीं !
एक हैरानी ये भी थी की उस औरत ने धीमे से बोले गए शब्द ही नहीं उसकी आवाज़ भी सुन ली थी
सच है ! ऐसा कुछ नहीं जो सिर्फ एक का हो और दूसरे को दिया जा सके ,सब कुछ तो साझा है . मेरे पास जो आता है वो तुम्हारे घर के रास्ते को यहाँ इस पेड़ पे टांग देता है और लौटते हुए जेब में डाल चल देता है .
उसने आँख भर देखा उस औरत को , वो औरत स्वाभिमान की चादर लपेटे खड़ी थी , वो चुपचाप अपने सात कदम ले कर वापस लौट आई , वापस  लौटते हुए दरवाज़े पर उसे लगा जैसे उसके पेट में सुनहरी मछलियों की  जगह  पिराहना आ गई हैं , उसे लगा  ये  पिराहना उसकी सोच को कुतर डालेंगी , उसने आसमान की तरफ देखा , बरसने वाला था , अब उसे भीगना  अच्छा नहीं लगता , बारिश  के समय वो खिड़की से  चेहरा बाहर निकालने की  कोशिश भी नहीं करती , बूंदों के मिटटी में जज्ब होने से पहले याद करती है वो बारिशों के साथ आये हुए गैर -इरादतन ख्वाबों की   , बाढ़ में  डूबने से पहले और लकीरों में अकाल पड़ने से पहले ,  उसने कुछ बालियाँ तोड़ कर दरवाज़े के पास ही एक मिटटी के बर्तन में  सजा कर रख  दी हैं .
                                                                                दिन के एक हिस्से को उसने इंतज़ार के नाम सौपा हुआ है , बे-नागा  वो देहरी पे खड़ी हो आसरा देखती है ,  पता नहीं किसका , किसी की  आहट  का या किसी की लिखावट का , उस दिन के इंतज़ार का हिस्सा ख़तम कर पलटने से पहले ही कुछ पीले से पन्ने एक सादे से लिफाफे में उसके हाथों में  रख गया कोई , अचरज हुआ की न तो भेजने वाले का नाम है और ना ही पाने वाले का कोई पता , फिर भी उसे पता था , एक बिना देह की आवाज़ से उसे पता था की ये सारे पन्ने उसके लिए लिखे गए हैं , ये एक आवाज़ हमेशा से उसके साथ थी , बारिशों के पहले भी , बाढ़ से बहुत पहले और फसलों के बर्बाद होने से  बहुत-बहुत पहले से , आज खतम हुआ था इंतज़ार उसका ? , तो फिर सर क्यूँ दुखने लगा था उसका , आँखों का सफ़ेद रंग सुरमई क्यूँ नहीं हुआ ? , उसने सात कदमो को  अपने चेहरे पे फैलाया और आँचल में उन कदमो की गाँठ लगाते  हुए एक हाथ से दरवाज़ा बंद कर लिया .














































































                                                          
















Monday 21 October 2013

तकली में,
फंसाती है इक्षाओं को उमेठ कर
कातती है स्वप्न,
एक गवाक्ष के सहारे
खींचती है डोर
परिंदों के आने के लिए
सुना है उसने
ठठाकर हंसती हुई लड़की
मरती नहीं कभी
उस देस में

Saturday 19 October 2013

सीढियाँ उतरते समय सहारे के लिए दीवार पे टिकाया हाथ , लगा किसी के काँधे पर रखा गया हो , मुड कर देखा , आश्वस्त हुई , दीवार ही थी थोड़ी गोलाई लिए हुए , एक ख्याल पास से गुज़र गया नमी संभाले हुए , कौन देता है कंधा उतरते हुए को हाथ रखने के लिए .

Sunday 13 October 2013



हमारे भाई बहनों और भौजाइयों ने तो बहुत चाहा और कोशिश भी की कि हम लम्बाई में अमिताभ से भी तिगुने नहीं तो कम से कम दुगुने जरुर हो जाएँ , पता नहीं किसकी किस्मत ने साथ नहीं दिया वैसे आज तक उनकी कोशिशे बरकरार हैं ।

बच्चों की छुट्टियां शुरू होने से पहले ही दूर-दराज़ के भाई बहनों का प्रोग्राम बन गया एक जगह इकट्ठे होने का , हमने भी हामी भर दी , तब पता थोड़े ही ना था की ओखली में सर डाल रहे हैं। ट्रेन की धक्कम- धक्की , खिच-पिच सिर्फ अपने प्यारे भाई बहनों की सूरत को याद कर कर झेल गए लेकिन क्या पता था की सर मुंड़ाते ही ओले पडेंगे। ठण्ड अभी शुरू हुई नहीं और गर्मी पूरी ढिठाई से अपनी जगह कायम है , हमने घर के बाहर ही सामान पटकते हुए आवाज़ लगाईं की कोई लेते आना भई ये सामान ,लस्त -पस्त से हमने कमरे में कदम रखा , कमरे में कदम रखते ही छोटे भाई साब चिल्लाये ---अरे!संभालो, संभालो, पकड़ो , गिरा जा रहा है हम डर गए , सोचा सारा सामान तो बाहर पटक आये थे ऐसा क्या रह गया ,भाई साब के बोलते ही कमरे में ख़ामोशी छा गई , ऐसी ख़ामोशी की पलक भी झपके तो आवाज़ आये , हमने सहम कर नीचे देखा , कहाँ ? क्या गिरा ? हमें कुछ दिखा ही नहीं , नीचे तो साफ़ चमकता हुआ फर्श दिख रहा था ,एक तिनका भी तो नहीं था , छोटे भाई साब बोले अरे तुम्हारा पेट घुटने से नीचे गिरा जा रहा है , संभालो उसे , खिसियाये हुए हम कुछ कहते उसके पहले ही इकट्ठे हुए भाई -भौजाई , बहने सबने ऐसा गगन-चुम्बी ठहाका लगाया की हमारी खिसियाहट चुपचाप खिडकी की झिर्री में से नौ - दो -ग्यारह हो गई , ठहाके ठहर पाते , सांस ले बैठ पाते उससे पहले बड़े भाई साब बोले --अच्छा अब पूरी तो अंदर आ जाओ ! हम निरे गधे के गधे ही रहे , अभी खिचाई हो के चुकी थी पल भर में भूल गए और मासूमियत से पूछ बैठे - मतलब ? भाई साब ने अपनी मुस्कराहट मूछों में छुपाते हुए कहा ---अरे आगे का हिस्सा तो कमरे में आ गया , थोडा सा आगे बढ़ो , पीछे के हिस्से को भी आने दो कमरे में , वैसे ही उसे एक हफ्ता लगता है पूरी तरह से कमरे में आने में .
हद्द होती है हर बात की , अभी आ के टिके भी नहीं और ये सारे शुरू भी हो गए , ये सारे अजीब से प्राणी खींच- खींच कर हमारी लम्बाई बढ़ाने में लगे हुए हैं , सारे भाई - भौजाइयाँ पेट पकड़ कर जमीन पे लोट लगा रहे थे , हम मुँह बिसूरे और सारे बच्चे मुँह बाए इस नज़ारे को देख रहे थे , जो धमाचौकड़ी इन बच्चो के हिस्से आनी चाहिए वो तो ये सारे मिल कर किये जा रहे हैं , जहाँ मिले ये चार सर , वहीँ शरारतों को लग जाते हैं पर , पता नहीं किस घड़ी में हमें ये ख्याल आया था की सब इक्कठे हो रहे हैं तो हम भी जुट जाएँ ,विनाश काले विपरीत बुद्धि , अब पीटो सर अपना , छुट्टियाँ तो नज़र आ गई कैसी बीतने वाली हैं .



(बुनी जा रही कहानी का एक अंश )

Thursday 10 October 2013

सोचती  हूँ  खूब- खूब   पढ़ना  जरुरी  है  जिससे  बोलना  आ  जाए ,  पढ़ती  हूँ  तो  शब्द  गहरे  पैठ  जाते  हैं  और  मैं  मौन  से  थोडा  और  सट  कर   बैठ  जाती  हूँ  . चाहती हूँ   मौन   से  भाग  कर  शब्द  हो  जाऊं  लेकिन  चाहने  से  क्या  होता  है  न  , अपने  शब्दों  को  काट - छांट  कर  और  छोटा  कर  देती  हूँ ,काश  सामने  वाला  बित्ते  भर  में  समझ  ले और जवाब  दे  दे  बिना  सवालों  के  . जैसे  नानी  चिट्ठी  में  लिखा  करती  थी  माँ को  "कम  लिखे  को  ज्यादा  समझना " , कहते  हैं  शब्द  हमेशा  के  लिए टंगे  रह  जाते  हैं  हवा  में ,मरते  नहीं  कभी  , और  उन  टंगे  हुए  शब्दों  से  ख़ज़र के  रस्तों  को , कच्चे  घड़े  को  लिए बैठी  उस लड़की  की कहानियों  को  और उन सात घोड़ो  को  कष्ट  होता  है  . और ये  कष्ट  मेरी  आवाज़  पे  बंद मार  उसे  आबनूसी  कर  देता  है  और  मैं काफी  सीखाने  के  बाद  भी  , कोशिशों  को  किनारे  रख  मौनभाषी   होना स्वीकार  लेती  हूँ  .

Saturday 5 October 2013

अनार के दानो सी हँसी ,

           अपनी बाँसुरी के स्वर ,

        बिना देह की आवाज़ ,  

पीले  नर्गिसों सी शाम

जो कुछ तुमने मुझे दिया है ,

   सब लौटा लो ,

बदले में दे दो

एक सूरज से अगले सूरज का एक दिन !!!

Saturday 28 September 2013

तुम्हारी एक हलकी सी आहट
और मुस्कराहट पाँव पसार कर बैठ गई
हमने साथ में बरसों के चावल बीने
और
दिनों के कंकर उठा
खिड़की से बाहर फेंके ,
 बनफशा  के फूलों सी
 रात की स्याही में
  सपनो की नावें खेई
पलकों पे धरी ओस की बूंदों को
तारों की धूप  से थपक सुला दिया ,
        अब
बेतरतीब सी बैठी हूँ
आओ
सिखा  जाओ मुझे भी 
हुनर
वापस लौट पड़ने का !!



Sunday 22 September 2013

कुछ  ढूँढ  रहे  हो ना  ,
        मिला कहीं?
रख  कर  भूल  गए  हो  शायद ,
समय , दिन , तारीख़
  मत पूछो
   कि
कब  दिया  था तुम्हे ,

लौटा पाओगे क्या ?

जो मुझे भी नहीं मिलता। .

शायद तुम्हे ही मिल जाये

तुम में ही तो खोया है।

मेरी जमीन

मेरा आसमान

Saturday 21 September 2013

कमाल का कमाल
दिखा रहे हैं
वो सारे जुगनू
जो रख गए हो
तुम
मेरी आँखों में !!!!

Monday 16 September 2013

    दम  साधे  वो उसको सुन रहा था
                                       अपने  माथे  की  लकीरों  को  खुद  ही  बाँच लूंगी  और अपने  अनगढ़   हाथों  से  लाल - पीले रंगों में रंग भी लूंगी , जब सारे रंग चुक जायेंगे ,  जब सारे रंग चुक गए,  तो तुझसे उधार माँगने चली आई , तूने भी मुस्कुरा के,  दहलीज़ पे खड़े-खड़े , मेरी कूची एक ही रंग से भर दी।
                                                                            
                                                                           वो आधी पीठ मोड़े  सुनता रहा

                                      उसने अपनी खाली  आँखों को छुआ  , कोई आँसू  लुढ़का  ही  नहीं ,  पहाड़ों पर  बर्फ जमनी शुरू हो गई थी।  उसने  अपने आपको आसमान , पहाड़ और ज़मीन  में गुम  कर लिया।

                                                                     आज भी जब कोई उससे सारे रंग माँगने आता तो उसे आधी पीठ मोड़े उसी जगह खड़ा  पाता।

                                         इश्क ! तेरा  फैसला
                                       मेरी कौम के सर माथे

                                      

                                    

   
                                                                                  
                                                         
                                                                                     
                                                            

Sunday 15 September 2013



सारा कमरा घूम रहा था , लेकिन कमरे की

चीज़ें अपनी जगह थी , फर्श और अर्श एक

हुए जा रहे थे तब भी हम अपनी जगह से तिल मात्र भी खिसके नहीं थे आखिर चक्कर क्या था , कानो में अभी तक शताब्दी ट्रेन की सीटियाँ गूँज रही थीं ,

वही शताब्दी जो अभी - अभी हमारी बिटिया के एक जुमले की वजह से हमारे एक कान से धडधडाते हुए दूसरे कान से गुजर गई थी , अपने होशो- हवास को काबू में करते हुए कहा ----- "बेटा जी क्या कहा आपने"


बिटिया भी तो हमारी ही थीं

( करेला वो भी नीम चढ़ा)


बोलीं ---- " इस बार दिवाली पर मैं सलवार कमीज़ पहनूगी और दुपट्टा भी "

सुन कर हमारे तो सारे त्यौहार एक दिन में ही मन गए , उनका इरादा बदलने से पहले आनन् फानन में हम उन्हें बाज़ार ले गए .

दर्जी को जब नाप देने का वक़्त आया तो एक बार फिर से हम आकाश पाताल की सैर करने लगे , बिटिया ने फिर बड़ी बूढियों की तरह समझाया " माँ आजकल backless का फैशन है"




और दुपट्टा ? हम मिमियाए

जब बिटिया ने दुपट्टे का नाम लिया था तभी से हमें " हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का " ये गाना चारों तरफ सुनाई ही नहीं दिखाई भी दे रहा था , लेकिन दुपट्टे के नाम पे उनकी उस पतली सी पट्टी ने हमारे ख्वाबों की ऐसी धज्जियाँ उड़ाई की तौबा तौबा . हम सहम कर दूकान से बाहर आ गए की कहीं वो गुजर चुकी शताब्दी वापस हमारे कानो में आकर न खड़ी हो जाए ।


चुपचाप बिटिया को ले कर घर पहुंचे जो गर्मी- गर्मी रटे जा रही थीं , पता नहीं कैसे हैं ये बच्चे जो AC से बाहर निकलना ही नहीं चाहते और एक हम थे की अम्मा चिल्लाती रह जाती और हमें खेलने से फुर्सत न मिलती ।


उमस भरी दोपहर में हम सूरज से इतना कहते आ भाई थोड़ी देर के लिए आँख मिचौली खेल ले , थोड़ी गर्मी कम हो जाएगी लेकिन उन्हें तो लुत्फ आता था अम्मा से हमें डांट पडवाने में , अम्मा चिल्लाती ---सो जा मरी , सारा दिन धमा चौकड़ी , उछल कूद , लू लग जायेगी , गर्मी छुट्टियाँ हमेशा से ही हमारे लिए और अम्मा के लिए मुसीबत का बायस बनती थीं , चीख चीख कर अम्मा का गला बैठा रहता और बरफ के गोले खा- खा कर हमारा।


जब पूरे घर में सन्नाटा होता , दोपहर की ऊँघ का मक्खियाँ भी जब मज़े ले रही होती तब हम गली के लड़को की टोली में घुस दोपहर और छुट्टियों का सदुपयोग कर रहे होते ।

एक आँख मीच के और जीभ को गोल घुमाते हुए नाक और ऊपरी होंठ के बीच में टिका कर हम किसी कंचे पर निशाना साधे तो मज़ाल है की वो इधर उधर फुदक जाए , कंचे खेलने में अव्वल दर्जे की महारत हासिल थी हमें । एक और खेल जिसमे कोई हमारा मुकाबला नहीं कर पाता था, वो था साइकिल के पुराने टायर को डंडी से हांकना , जिसका टायर जितनी दूर चला वो जीता । यहाँ हम अपने लड़की होने का पूरा- पूरा फायदा उठाते थे , बाकी सबकी एक बाज़ी और हमारी दो , कोई ऐतराज़ करता तो हम बड़ी शराफत और मासूमियत से कहते - जरा दुपट्टा सँभालते हुए टायर चला कर दिखाए कोई , ये करतब तो सिर्फ हमी कर सकते हैं गोया दुपट्टा संभालना ना हुआ सर्कस का कोई खेल हो गया ।

हम टायर दौडाते हुए चले जा रहे थे , हमारी चप्पलें कब हमें अलविदा कह के चली गई हमें पता भी नहीं चला और किसी जौहरी को भी खुर्दबीन की जरुरत पड़ जाती हमारे बालों का रंग बताने के लिए ।

भगवान भी बड़े इत्मीनान से हमें टायर हांकते हुए देख रहे थे , एक पल सिर्फ एक पल को उनकी नज़र हमपे से क्या हटी की तूफ़ान ही आ गया ।

हम टायर के साथ दौड़े जा रहे थे और हमारे पीछे- पीछे दौड़ने में साथ दे रही थी हमारी टोली तभी बगल से एक गाडी गुज़री , पिताजी खिड़की से सर निकाल , नहीं शरीर के आधे हिस्से को सर कहना ठीक न होगा , लगभग खिड़की से लटके हुए भौंचक्के से अपनी प्यारी लाडो को पहचानने की कोशिश कर रहे थे ,गज़ब की फुर्ती दिखाते हुए हमने घूंघट किया , सच्ची पहली बार हमें इस घूँघट नाम की बला की अहमीयत पता चली फिर भी आज तक पता नहीं चला की उन्होंने हमें पहचाना कैसे ?

पेशी तो होनी ही थी , हुई भी , वो क्या बोल रहे थे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था ( कान बंद करने की आदत तो हमें बचपन में ही लग गई थी) और वैसे भी हमारा पूरा ध्यान तो उनकी मूछों पे था , हम अपने ख्यालों में उनकी मूछों को बैंगनी रंग में रंग कर उसपे झूला डाल पींगे लेने की तैयारी कर ही रहे थे की हमारी बिटिया ने हमें बचपन से सीधा सच्चाई के धरातल पे ला खड़ा किया ।

एक ये बच्चे हैं इनके दोस्त भी इनकी ही तरह शांत , कोई हल्ला गुल्ला शोर शराबा नहीं , सब अपने अपने फोन पे बिजी , कभी समझ ही नहीं पाए की फोन को देख के मुस्कुराने में क्या मज़ा आता है । खेल भी खेलेंगे तो कुर्सी पे बैठे बैठे , भगवान् की ही समझ में आता होगा की कौन से स्कोर का कौन सा रिकॉर्ड रोज़ रोज़ तोडा जाता है।

वो कहकहे , वो आसमान से ऊँचा उड़ना

धरती को बाहों में समेटना

बगुलों पर सवारी करना

कहानियाँ , शैतानियाँ

पूड़ी अचार के चटखारे

काश

हमारे बच्चे भी

इनसे

थोड़ी पहचान बढ़ाते ।

Thursday 12 September 2013

उतरती है मेरे तुम्हारे बीच
    एक पगडण्डी अक्सर
सीधी सपाट
निर्जला
कंठ में काँटे  सहेजे
पसरती हैं चुप्पियाँ
इस सिरे से उस सिरे तक
पगडण्डीयाँ  हमेशा
रस्ता  नहीं
हुआ करती !!!!
उत्कंठा है
        तुम्हारे साथ
 खेलने की
हर किसी से जीत कर
    तुमसे हारने की
दाँव  पे रखूँगी
      अपने
   पाप -पुण्य
 धर्म -अधर्म
इक्षा -अनिक्षा
     "मैं"
और पा जाऊँगी
चिर -प्रतीक्षित  हार में
चिर -लक्षित जीत
     "तुम"

Saturday 7 September 2013





ऊँह  बड़ी  देर   हो  गई  एक  तरफ  मुँह  करके  बैठे  हुए , कम्बखत  कितने  तो  उधड़े   कपडे  सिये   जाएँ  और  कितने  दिनों   तक  की  सब्जी  काटी  जाए  ,  कनखियों  से  देखते - देखते  आँखे  ही तिरछी  हो गई  शुक्र  की  गर्दन   अभी  तक  सीधी   है , महसूस  तो ऐसा  हो  रहा  है  की कुछ  पलो  से नहीं  जन्मो  से  यंही  चौकड़ी मारे  बैठे हैं  और   कोई   हमें  मनाने  आया  ही  नहीं ,  ये रूठना  मनाना  भी  ऐसा होता  है  जैसे  एक दाँत   से  कमरख   काटा  जा  रहा  हो  और   दूसरी  तरफ  गुड़   की  डली   ज़बान  पे  पिघल  रही  हो  .
                                         
                                                            बालों   में  चाँदी   जिस  हिसाब  से  दुगुनि - चौगुनि   होती  जा  रही  है  उसी  हिसाब  से  हमारा  ये  शौक  भी  बढ़ता  जा रहा  है  हर  लड़ाई  के  बाद  हमें  बड़े  प्यार  से  , हमारे नाज़ नख़रे  उठाते हुए  मनाया जाए।  
                                              टीवी   कभी  सरगोशियाँ  सी करता  है  और कभी इतनी जोर से  चिल्लाता  है की ये  मुए  कान  पलँग  के नीचे  पनाह  माँगते  दिखते  हैं  ,  फर्श  पे  कान  चिपकाए पैरों  की  आहट  सुनने  की  कोशिश  की  लेकिन  कहीं  हूँ - चूँ   भी  नहीं  , लगा  आज  तो  ये  घर  बाढ़  में  डूबा  ही  डूबा  --, गँगा  , जमुना , सरस्वती , नर्मदा , कावेरी , ( ना , हम  अपनी  याददाशत   को  दाद नहीं  दे रहे   की  स्कूल  में  पढ़ा  हुआ  भूगोल  हमें  इस  उमर  में  भी  याद है.) सारी  नदियाँ एक  साथ   जो  बह  रही  थी और  किसी  के  कान  पे  जूं  तक  ना  रेंग  रही  थीं।
                                     नदियाँ  बही  , गुस्सा  उबला  , और  ये  लो  जल  गई  सब्जी,  जलने  की  महक  ना हमारी  नाक  में  घुसी  ना  ही   किसी  और  की  नाक  में , निगोड़ी  पता  नहीं  किस  सूराख  में  से  निकल  भागी।
          ज़हन  में  एक  कीड़ा  कुलबुलाये  जा   रहा  था  की  एक  बार  ज़रा  झाँक  आये   ,देख आये की  किसी  को  हमारी  फ़िक्र  है  भी  की  नहीं  लेकिन फिर  हमने  जी  कड़ा  कर पट्ट  से उस  कीड़े  को मसला  और  धम्म से  वहीँ  जम   गए।
                       हम  कोई  जमाने  से  उल्टी   गंगा  थोड़ी  ना  बहा   रहे  हैं  , सदियों  से  सदियों  का दस्तूर  तो बीविओं  के  रूठने  का  ही  है  , मौक़ा - मसला  कुछ  भी  हो  और  शौहर  का  ये  फ़र्ज़ ,   की   वो   नाज़ुक  सी  बीविओं  को  मनाएँ,  (  कितनी  भी  तीखी  हो  लेकिन  कहलाना  तो  सभी  नाज़ुक ही  चाहती   हैं )  एक  थी  हमारी  पड़ोसन  , जब  सीढियाँ  उतरती  थीं  तो  हमारा   कलेजा  कमर  कस  छलांग लगाने  को  मुँह   में तैयार  बैठ  जाता  था , जब  तक  वो  सीढियाँ  उतर  न लेती  हम  दाँत  भीचें ,  चुप  लगाये   बैठे  रहते  थे।
                                                                                  अगर    पतिदेव  ने  सुन  लिया  कि  हम  अपने आपको  नाज़ुक  की  कतार  में  खड़ा  कर  रहे  हैं  तो  पक्का  हँसते - हँसते  उनके  दाँत   ग्लास  से बाहर   आ  कबड्डी  खेलने  में  जुट  जायेंगे।
                                       हमारे  " उनको"  गुस्सा  अक्सर  तब  आता  है  जब  हम  उनको  प्यार  से  बुढऊ   कहते  हैं  तो  वो हमारे  पूरे  खानदान  की  बुढ़ौती  का  ऐसा  नक्शा   खींचते  हैं  कि  बड़े  से  बड़ा  नक्शा   नवीस  बगलें  झाँकने  लगे ,   जब  वो  खाका  खींच  रहे  होते तो   उसी  समय  हम  बड़े  प्यार  से  एक  कच्चा  सा  अमरुद  सामने  कर  बड़े  धीमे  से  कहते  " खाओगे " ( इसे  कहते  हैं  आग  में  घी  का  कनस्तर  पलटना ) अजी , गंगा  में  डुबकियाँ  लगाते  ,छतों  पे  कूदते - फाँदते  इस  उमर  में  पहुंचे  हैं , वो  बनारसी  ही  क्या  जो  हार  मान  जाए। 
                खैर , आज  मसला  दूसरा  था , गोया  इतना  संजीदा  भी  नहीं  था  की  कोई  हमें  मनाने  ना आये। 
                                                                      बात  तो  इतनी  सी  ही  थी  तलाक  का  मुक़दमा  कौन  दायर   करे  , पहले  तो  इसी  बात  पे  घन्टो   बहस  चली  की  किसके   हिस्से  में  क्या - क्या  आएगा   फिर  बोले - 'ठीक   है  मैं  दायर  करता  हूँ  बस  तुम  अंगूठा  लगा  देना '

( अब  कोई  तलवार  खींचें  तो  चुप  कैसे  रहा  जाए )

हम  दहाड़े -" पढ़े - लिखे  हैं  हम  '

शोखियों  पे  फिसलता  हुआ  सामने  से  जवाब  आया  ठीक  है   साइन  ही  कर दीजियेगा। 
                                                            जब  बहस  में  अखबार  एक  तरफ  सरका  दिया  गया था  हमें  तभी  समझ  जाना  चाहिए  था  की दाल  में  कुछ  काला  जरुर  है  ,  भोले  बाबा  की  नगरी  के  हम  तो  हैं  ही  बजरबट्टू।  
             अखबार  के  पीछे अपनी  मुस्कराहट  छिपाते  हुए  महाशय  बोले  -" चलो  भई  खाना  खिलाओ , क्या  बनाया  है  ? , हम  तो  तुम्हारा टाइम  पास कर  रहे  थे  , दिन  भर  खली  रहती  हो  और  शिकायत  भी  करती  हो  की  हम  तुमसे  बातचीत  नहीं  करते "
                       बीविओं  को चिढाने का  सबसे  कारआमद  तरीका है  की  अखबार  में  मुँह  दे  कर  बैठ  जाओ भले  ही  वो सुबह  से  चाट -चाट  कर  गीला  किया जा  चुका  हो। 
                                            धाँय ---- हमारे  दिमाग  के  कपाट  खुले  और  हमें  ये  ज्ञान  प्राप्त  हुआ  की  हम  बेवकूफ  बनाये  जा चुके  हैं  ,  ये  बाज़ी  तो  हो  गई  इनके  नाम.
                                                                       हज़ार  मर्तबा  दुपट्टे  में  गाँठ  लगाईं की  इनसे  पंगा  नहीं  लेंगे  लेकिन  इधर दुपट्टा  धुला  और  साथ  ही  हमारी  याददाश्त। 
                                                       पैर  पटकते  हुए  हम  बाहर  आ  कर  बैठ  गए  और  इंतज़ार  में  हैं  की  हमें  मनाने  कोई  तो  आएगा  !!!
                                              


                        
                  

Friday 23 August 2013

बाबा

बाबा ,
दस साल की नौकरी के बाद आपको फोन किया था की मैं रिजाइन करना चाहती हूँ ,वापस आना चाहती हूँ ,याद है मुझे बाबा की जब मैं घर से निकली थी तब आपने कहा था की "क्या इसी दिन के लिए पढाया लिखाया था कि सब चूल्हे में झोंक दो ", आप मेरी इस नौकरी से खुश नहीं थे .
आपने कहा हम इस बारे में बाद में बात करेंगे फिलहाल तुम छुट्टी ले कर घर आ जाओ ,घर शब्द सुन कर कितना सुकून मिला था बाबा मुझे ,मैं अपना थोडा सा सामान ,कुछ ताने ,कुछ उल्हाने ,और कुछ फटी हुई यादें ले कर घर आ गई थी ,शायद अपनी सहूलियत के लिए भूल गई थी की सब कुछ हमेशा एक जैसा नहीं रहता .
सबने स्वागत किया था ,एक दिन माँ ने अकेले में धीरे से कहा --"भाई ने कहा है उससे कहिये थोडा एडजस्ट करना सीखे "अचानक ही भाई के साथ मिल कर कभी की हुई शैतानियाँ कंही छुप गई और मेरी मुस्कराहट थोड़ी सी और गहरी हो गई जब माँ ने कहा -नौकरी तो तुम्हे यंहा भी करनी पड़ेगी .माँ से कह नहीं पाई की बाबा ने तो घर बुलाया था
बाबा आपके घर के ,आपके परिवार के लोगों के चेहरे पर जगह की कमी की तकलीफ दिखने लगी थी ,अच्छा ही हुआ न बाबा की मैं रिजाइन करके नहीं आई थी .
मेरे वापस लौटने के फैसले पर किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ,आपने भी तो नहीं किया न कोई सवाल बाबा ,सबकी नज़रों में कितनी समझदार हो गई थी मैं ,सबने एक सुकून की सांस ली थी की अब सब कुछ पहले जैसा ही हो जायेगा ,हो गए सब अपने रोज़ के कामों में मस्त .
बाबा अब तो मैं भी समझदार हो गई हूँ ,जानती हूँ अब जब भी फोन करुँगी तो आप सब क्या सुनना चाहेंगे
"सब ठीक है बाबा ,हाँ खुश हूँ मैं इस नौकरी में "
कमाल का कमाल
दिखा रहे हैं
वो सारे जुगनू
जो रख गए हो
तुम
मेरी आँखों में !!

सात

देखना चाहती हूँ ,
सातों नदियों के जल
तुम्हारी आँखों में ,

जब पुकारो मुझे ,
महसूस करना चाहती हूँ,
सातों सुरों का सारांश
तुम्हारे स्वर में ,      

चाहती हूँ पार करना ,
सातो द्वीप ,सातो समुद्र ,
सातो लोक ,सातो आसमान ,
तुम्हारा हाथ थामे -थामे !
अपने ही परिजनों के साथ,
युध्भूमि में ,

विवश हूँ,
कवच और कुण्डल
ना दान करने के लिए
हैरान हूँ मैं ,
कितना हुनर है तुम में ,
खाली आँखों को
फिर से खाली कर गए
तुम!!!!!!

गंगा किनारे
सीडियों पे बैठ
एक दुसरे का हाथ थामे
सूर्योदय  देखना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
गलियों-गलियों चुप-चाप
उंगलियाँ छूते
कदम गिनते हुए
वापस लौटना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
कमरे में बिखरे पड़े
मेरे शब्दों को
उठाकर पन्नो में सहेजना
जानती हूँ
तुम्हे अब भी याद है
सोचती हूँ ……
क्या ये सब
मुझे भी याद है!!!
हंसती हूँ ,मुस्कुराती हूँ,
कभी -कभी खीज भी जाती हूँ
व्यस्त रहने की कोशिश करती हूँ,
जीतती भी हूँ ,हारती भी हूँ,
और अब तो
अक्सर
ईश्वर से नाराज़ हो उठती हूँ,
सालो से तुम एक ही तो
दुआ
मांग रहे हो ,
क्यों नहीं वो तुम्हारी सुनता,
और
कर देता मुझे मुक्त!!
ना आभास ,ना ध्वनि, ना आकार,
ना मन का मेला है,
ना रंग ना सपने ,
ना कुछ चाहा है और
ना ही अनचाहा ,
ना ठंडी नदी बची है ,
और ना ही कोई
गर्म पानी का सोता है
निराकार हो गई हूँ
लगता है जैसे
तुम्हे पा लिया है
मैंने!!!
विवाह के बाद की
पहली रस्म,
तुम्हारी कलाई में बंधे
धागे में लगी
सात गांठों को
एक ही हाथ से खोलना था मुझे ,
वो रस्म अभी तक
पूरी नहीं हो पाई,
आज भी एक ही हाथ से
गांठें खोलने में
जुटी हुई हूँ!
एक सुबह तुमने जो कहा,
लगा
कुछ सोये हुए से कम्पन मेरे भीतर जाग गए,
कुछ आँखों में आकर थम गए
और
कुछ
 होठों पे आकर पथरा गए ,
हैरानी में घिरी कंही खोई सी,
तुम्हे देखती रही,
कुछ भाव लिपट से गए थे,
सारे के सारे ,
खारे समंदर जैसे थे!
तुम सिरज दोगे मन का चैन,
यकीन है हथेलियों से दुआ गिरेगी नहीं,
तुम्हारे हाथों में देने से पहले
ईश्वर को ना कहने का
मौका तो दूं!
कितने सारे खेल
शब्दों के
एक दुसरे को मात देते
हँसते-खिलखिलाते
आँखों से सरक,मुस्कुराहटों पर टिकते-फिसलते
व्यंग से बोझिल होते,कपडे झाड फिर खड़े होते
कितने सारे खेल शब्दों के
मेरे तुम्हारे बीच!!!!!!!!!!!!!!
चुपचाप बैठे-बैठे सांस लेना,
कितना आसान लगता है न,
काश,
आसान होता!

Thursday 22 August 2013

बीती रात कुछ अपने से लगे थे तुम,
मेरे सारे ख्वाब घुटने मोड़े,
बैठे थे पास तुम्हारे,
तुमने कुछ कहा नहीं,
अंजुली में भर आँखों से लगाया था,
मेरे सूखे होंठ गीले हो गए थे,
नन्हे से सपने को काँधे पे बिठा,
नंगे पाँव चले थे तुम,
साथ चलने के लिए ,
आवाज़ लगाती रुक सी
गई थी मैं,
देहरी पे खड़ी ,हाथ बढाया था
और तुमने मेरी लकीरों में
खिलखिलाहट भर दी थी
बीती रात कुछ अपने से लगे थे
तुम!!!!!!!!
कुछ सपने उधेड़े थे,
एक धागा तुमसे जा जुड़ा था,
कुछ उलझा कुछ सुलझा सा था
सारी उमीदें
बित्ते भर छोटी रह गई

तुम्हारे नाप से
आधी सांस ले
रोक लिया हाथों को
अब कभी कुछ भी
मुझे
नहीं बुनना !!
कुछ बुझते से ख्याल
गाँठ -पोटली ले
तुम्हारे शहर पहुंचे हैं
कंही कोई सराय हो
टिका देना!!!!
चारदीवारियों की महफूज़ हवा ,
उधार सी है
नर्म बिस्तर की नींद ,
उधार ही तो है
हर वो निवाला बामुश्किल
उतरता है जो हलक से
उधार का ही तो है
सुनती हूँ चुप-चाप ,
घुटने पे ठुड्डी रखे,
--------- ब्याहता हो !

खुदाया ,सौगंध तुझे
उन नज्मों की
निकली हैं जो मेरे ज़ख्मो से,
तेरे घर आऊं उससे पहले ,
सारा उधार उतार देना !!!!!!      

मन

आज सोचा, आज तो जरुर कुछ लिख कर ही दम लेंगे, बड़ी तैयारी के साथ, सबको कमरे से बाहर निकाल, कलम-कागज़ ले कर बैठे, लिखना शुरू ही किया था की ये क्या सारे शब्द तो कबूतर बन फुर्र से उड़ गए,  हम पीछे भागे भी ,  लेकिन ये कोई वो मामूली से कबूतर थोड़े ही न थे ये तो सुर्ख सफ़ेद थे जो उड़ जाए तो लाख टटोलो मज़ाल है की आसमान में दिख जाये .
                                                     दुपट्टे को उँगलियों पे लपेटा,  सर पे रखा, आईने के सामने उल-जलूल शक्लें भी बनाई , कमरे की हर चीज़ को गौर से देखा , कमबख्त कंही कोई ख्याल छुपा हो, सोचा चाय ही  पी ली जाए, उंहु , अब ख्याल हमारे सिरफिरे दोस्त तो हैं नहीं चाय की महक से ताबड़तोड़ कमरे में घुसते चले आयेंगे।

           सोच ही रहे थे की लिखने के लिए ख्यालों को कहाँ टटोले कि तभी  ………     ये लो बारिश को भी अभी ही आना था ,अब ख्याल आयेंगे भी तो भीगे हुए ,  हद्द है , कोई भी तो नहीं चाहता की हम अपने आप को पन्नो पे उतारे ,  सोचा किवाड़ खोल देते हैं (हम सोचते बहुत हैं ना ) , ठंडी हवा , बूंदे, उफ़ , माहौल रूमानी हो जाए तो कुछ लिख ही डाले , छज्जे पे पहुँचते ही बूंदों ने कुछ सराबोर से लम्हे , सड़कों पे दौड़ते कुछ पल , अनसुनी-अनकही लाखों बातें ज़हन में ऐसी ताज़ा की, की हम लाख मन को तागो में बाँधते रहे , उसे डपटते रहे लेकिन वो तो उनके पीछे दौड़ पड़ा , कभी सुनी है उसने हमारी जो अब सुनता , हम लट्ठ ले के पीछे भागे भी लेकिन हमारा मन तो न जाने किस खोह, किस कन्दरा में छुप कर बैठ गया है , हम भी इस इंतज़ार में हैं की कभी तो वापस आएगा।।            

Wednesday 21 August 2013

निर्जन मन,
एकांतवास,
अंतिम सस्कार,
तुम्हे विदा करने का दुःख,
खाली हथेलियों से तुम्हारे फूल चुनती
हंसु या रोऊँ ,
लम्बी प्रतीक्षा की थी तुमने ,
अपनी मुक्ति की ,
इस श्राप से!!!   
एक लफ्ज़ से परिचय हमेशा आधा -अधुरा ही रहा,
और अब तो कोई कैफियत ही नहीं,
अक्सर बगल में आ बैठता है,
कभी हैरानी हुआ करती थी ,
अब वो
अपनी पहचान देने में
और मैं खुद में
मशगूल रहती हूँ !!!!!!!!!!

चिट्ठी और जामुन

जरा सा ऊँघने की कोशिश क्या की , लगा कहीं ढोल -नगाड़े बज रहे हैं ,होशो -हवास  दुरुस्त करने में थोडा सा वक़्त क्या जाया किया शोर बढ़ता ही गया ,समझ आया की दरवाज़े की घंटी जोर - शोर से किसी के आने की इत्तिला दे रही है ,भुनभुनाते हुए उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखते ही मुँह से निकला -
                                                                                                              हे भगवन ! अभी हम इतने भी बुड्ढे ना हुए की हमारे दिमाग का फितूर हमारी आँखों के सामने दिखने लगे ,
                                                                                          सामने था postman , POSTMAN ? , हमने अपनी उँगलियों को अच्छा - खासा कष्ट दे कर आँखों को मला ,मन तो किया daily soaps की तरह तीन बार दरवाजा खोले तो शायद हमें ठीक -ठीक दिखाई देने लगे , हमने उन्हें नीचे से ऊपर तक घूरा और उन्होंने हमें सर से पाँव तक , नज़रों से एक दुसरे को तौलना खत्म ना होते देखकर हमने हाथ के इशारे से ही पूछा -
                                                                                                                                                  क्या है ?
उनको देखने के सदमे से अभी तक उबरे भी नहीं थे की उन्होंने पान चुगलाते हुए अपने थैले में से एक लिफाफा निकाला और पान की पीक थूकने के लिए अगल - बगल निगाह दौडाते हुए कहा -
                                                                           चिट्ठी है !
हैंsss चिट्ठी ? अगर मनमोहन सिंह बोल पड़ते तो भी हमें इतना आश्चर्य न होता जितना चिट्ठी सुन कर हुआ , सोचा - कौन निगोड़ा है जो इस इ-मेल के जमाने में हमें चिट्ठी लिखने की जहमत उठा रहा है।
                                                                                                                           खैर ,कुछ भी कहो , वो नीला - नीला सा लिफाफा हमारी हथेलियों को गरमाई और दिल को सुकून से भर गया , postman को विदा कर हमने लिफ़ाफ़े को अल्टा - पल्टा , भेजने वाले का नाम देखकर तो मन बल्लियों उछलने लगा ,ये हमारे उन छोटे से चचेरे भाई की थी जिनके एक लफ्ज़ "गिल्ली -डंडा " ने आठ खोपड़ियाँ एक साथ अपनी तरफ घुमा ली थी और आठ जोड़ी आँखें अपने कोटर में से बाहर बस चल ही पड़ी थी।
                                                                                   हुआ कुछ यूँ था की हम चचेरे -तयेरे भाई बहन मिल कर पूरे नौ थे और सब आस - पास की ही उम्र के थे ,साथ शैतानियाँ करते साथ ही सोते ,एक बड़ा सा पलंग था ,जगह के लिए क्या धींगामस्ती हुआ करती थी और अगर कहीं से बुआ कमरे में आ जाती तो ना जाने कहाँ से पलंग पे इतनी जगह आ जाया करती थी की नौ और सो जाए , हम हैरानी से पलंग को घूरा करते थे। बुआ थी ही ऐसी  ही उन्हें देखते ही हमें बड़े अजीब-अजीब से ख्याल घेर लिया करते थे।
                                       जैसे कि  जामुन , आपने कभी किसी को जामुन खाते देखा है ,आप कितना भी कह लो हम आपसे शर्त लगा सकते हैं की नहीं देखा होगा . वो एक कटोरे में काले -काले मोटे नगीने से ,देख भाल कर गोल - गोल घुमाते हुए उन्हें उठाना ,फिर धप से नमक में घुसाना और लो वो गया गप से मुहँ में।
हम सारे बुआ की बड़ी - बड़ी अंगूठियों और कत्थे से लाल हुई उँगलियों के बीच बेचारे- सहमे से जामुन पे निगाह जमाये रखते , जामुन बुआ उठाती और मुहँ हमारे खुलते ,जैसे ही वो निरीह सा जामुन बुआ के मुहँ में अलोप होता हम सबके दिमाग लगते दौड़ने - बैडमिंटन , नहीं , नहीं , टेनिस ,
                                                                                        उधर जामुन एक गाल से दुसरे गाल की सैर करता और इधर हमारी आँखें। अचानक किसी कोने से आवाज़ आई "गिल्ली - डंडा " हैं ssssssss … सुनते ही हम सारो की खोपड़ीया आवाज़ की दिशा में घूम गई वो भी इतनी तेजी से कि आज तक वापस घुमाने में किर -किर की आवाज़ आती है ,आठ जोड़ी आँखों ने घूरा ,अगर आँखों से कत्ल मुमकिन होता तो आज हम सारे भाई - बहन पता नहीं कहाँ होते ,उहं छोड़ो परे ,परदे के पीछे से झाँकती आधी आँख से बाद में निपटेंगे ,बुआ पे वापस ध्यान लगाया।
                                 चटखारे के साथ गुठली  बाहर निकले उससे पहले हम भाई - बहनों की शर्त लग जाती की कितनी दूर गिरेगी ,गुठली की दूरी नापने के चक्कर में हमारी तो जायदाद ही लुट गई वरना सच्ची आज करोड़पति तो जरुर ही होते।
                             हम भी क्या किस्सा ले कर बैठ गए ,अब इस उमर में यादों को जिंदा करने के सिवाय कुछ और है भी नहीं , हम तो खाली हैं, आप लोग क्यूँ मजमा लगाये बैठे है , चलिए उठिए, किस्सा सुन लिया न अब जरा हमें चिट्ठी पढने दीजिये ,
और सुनिए ,
अब ये न पूछियेगा की चिट्ठी में लिखा क्या था .
ना रंग , ना पहचान , ना छाप
कुछ नहीं बदलते
वैसे के वैसे गमकते हुए
सामने आ खड़े होते हैं
ये बेशर्म से रात और दिन !!!

Monday 19 August 2013

काफी बदल गई हो तुम,
पहले जब भी आतीं थीं
तो
मेरे हर हिस्से में जम कर बैठ जातीं थीं                            
अब तो
कभी-कभी
एक कोने में
हिल -डुल कर
अपने होने का अहसास

कराती हो
तुम्हे अक्सर तलाशती हूँ
पुराने खतों में
सहेजे हुए लम्हों में
आती कम हो
फिर भी मुझे तुम
अब भी
उतनी ही प्रिय हो
हो तो तुम वही न
मेरी पुरानी
हंसी!!!!!!!!!!!!!