Friday 26 September 2014

दिल्ली से बनारस

अचानक ही प्रोग्राम बना की कल बनारस चलते  है. पूरे पांच दिन की छुट्टियां मिल रही थी. हम आठ लड़कियों को लगा की कुबेर का खज़ाना मिल गया है. बनारस की हम आठ लड़कियां दिल्ली में एन.सी.इ.आर.टी. में पढ़ते थे  और वहीँ हॉस्टल में रहते थे. पहली मुश्किल की एच ओ डी को छुट्टी की एप्लीकेशन कैसे दी जाए. आशा भटनागर मैम  के सामने छुट्टी की एप्लीकेशन रखना मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना. खैर तय हुआ की सभी जायेंगे एक साथ उनके रूम में. हम सभी  ने  तय किया की  लोकल गार्जियन के घर जाने की बात कहेंगे. हमारा बहाना समझते हुए भी मैम ने छुट्टी के लिए हाँ कर दी. लोकल गार्जियन को ये बताना भी जरुरी था की घर जा रहे हैं ऐसा ना हो की वो इन पांच दिनों में फोन कर दें या मिलने आ जायें. उन दिनों मोबाइल नहीं हुआ करते थे और हम हौस्ट्लर्स के लिए एक फोन था जो की वार्डन की गैलरी में रखा होता था. गैलरी का गेट बंद रहता था और हमें गेट के सरियों में से हाथ डाल  के फोन उठाना होता था. कॉल सिर्फ रिसीव कर सकते थे. एक ने कहा इतनी जल्दी रिज़र्वेशन नहीं मिलेगा. मैंने कहा देखते हैं क्या होगा. स्टेशन पहुँचने का वक़्त तय कर हम सब घर चले गए.
                                                                                                                                                                     नियत समय पर स्टेशन पर इकट्ठे हुए. काशी विश्वनाथ का टिकट लेना था. रिज़र्वेशन तो दूर की बात आर ए सी भी नहीं मिला. वेटिंग टिकट ले कर चढ़ गए गाड़ी में. इतना यकीन था की टी टी उतारेगा नहीं. उस समय दिन के दो बजे के आस-पास चलती थी काशी विश्वनाथ. हम आठों टॉयलेट के पास न्यूज़ पेपर बिछा कर बैठ गए. गप और गाने शुरू हो गए लेकिन कितनी देर? सात बजते-बजते हम सबका बुरा हाल हो गया. ट्रेन फुल थी तो बर्थ मिलने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी. मैंने सबसे कहा की जिसको जहाँ जगह मिले पैर फैला कर सो जाओ. एक ने कहा की जिसकी बर्थ है वो आ गया तो? तो मैंने कहा सॉरी बोल के उठ जाना. मुझे भी जहाँ जगह मिली वहीँ सो गई. कितनी रात थी पता नहीं, अचानक लगा कोई हिला रहा है. एक झटके में उठ के बैठ गई. देखा एक सज्जन से व्यक्ति हाथ में टिकट और चेहरे पर असमंजस का भाव लिए मुझे उठाने की कामयाब कोशिश कर चुके हैं. उन्होंने कहा माफ़ कीजिये मेरे टिकट के हिसाब से ये बर्थ मेरी है. उन्होंने मुझे टिकट दिखाने की कोशिश की. मैंने कहा जी बिलकुल-बिलकुल ये बर्थ आपकी ही है. उन्हें भौचक्का सा छोड़ मैंने अपनी चादर समेटी और ये जा वो जा. जाते-जाते सुना "ये आजकल की लडकियां.......".मैं  पहुँच गई वापस वहीँ टॉयलेट के पास. एक-एक करके दस मिनट में  बाकी सभी भी आ गए. हमने एक दूसरे को देखा और गगनचुम्बी ठहाका लगाया.

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