Tuesday 10 February 2015

                                                  एक अदद दोस्त चाहिए.....








आज किसी से बात करने का जी चाह रहा है, असल में आज नहीं बल्कि पिछले कई दिनों से मन हो रहा है कोई मिल जाए और मैं अपना जी उड़ेल दूं. लेकिन ऐसा कहाँ हो पता है. जो सोचो वो तो बिलकुल नहीं हो पाता . किसी दोस्त के सामने  बैठ सब कुछ कहना या फिर फोन पे ही दिल खोलना कहाँ हो पता है मुमकिन. दोस्त हैं तो ज़ाहिर सी बात है मेरे दुःख पे दुखी हो जायेंगे, बस यही बात मुझे कुछ भी कहने से रोक लेती है. और देखा जाए तो दुःख भी नहीं है, शायद अपने कम्फर्ट जोंन से बाहर नहीं निकलना चाहती. ऐसे वक़्त में वो मेंढक वाली कहानी याद आ जाती है जो उबलते पानी से चाहना के बावजूद नहीं निकल पाता. कहानी कुछ यूँ है की एक मेंढक को कुछ वैज्ञानिकों ने एक आधे भरे हुए कांच के जार में डाल  दिया. वैज्ञानिकों ने अब पानी का टेम्प्रेचर बढ़ाना शुरू किया, पानी गर्म होता गया और मेंढक अपने आपको उस गर्म होते पानी के साथ एडजस्ट करने में लगा रहा. एक समय ऐसा आया जब उसने निर्णय लिया बाहर कूदने का लेकिन तब तक देर हो गई थी और वो अपनी सारी एनर्जी खर्च कर चूका था अपने आपको एडजस्ट करने में. कहीं ऐसा ही हाल मेरा भी न हो. परिस्थितियों से एडजस्ट करते करते कहीं मैं उस लॉन्च पैड को अनदेखा न कर दूं जो ज़िन्दगी मुझे दे रही है.

                                                                                    ज़िन्दगी बदलने वाली है, पूरी तरह बदलने वाली है, क्या इस बदलाव से भाग रही हूँ, या डर लग रहा है, कहना मुहाल है. क्या वाकई अकेलापन इतना त्रासद होता है की उससे डरा जाए. क्या करुँगी, कैसे रहूंगी जैसे सवाल इस इंतज़ार में मुँह बाए खड़े हैं की मैं उनके जवाब तलाश कर उन्हें दे दूं. लेकिन फिलहाल मेरे पास कोई जवाब नहीं. सिर्फ एक मूल मन्त्र है --"जो होता है अच्छे के लिए होता है", "जो होगा देखा जायेगा". कहना आसान है करना मुश्किल. किसी से मतलब किसी से भी भाई- भाभी माँ पापा कुछ नहीं कहा जा सकता, जब किसी का कोई इख्तियार नहीं तो बोलना क्यूँ. एक दोस्त कहता है की प्रकृति हमें तैयार करती है आने वाली ज़िन्दगी के लिए, शायद यही सच हो.  उससे इधर-उधर की ढेरों बातें की लेकिन चाह  कर भी उसे कुछ नहीं बता पाई. वो पूछता है दिल्ली कब आओगी, और मैं उसे एक महीने का नाम बता देती हूँ ये सोचते हुए की अभी झूठ बोल लो जब वो वक़्त आएगा तब देखा जाएगा.
       

                                                                                                      एक अदद दोस्त चाहिए जैसा विज्ञापन दे देती हूँ, ऐसा दोस्त जो अजनबी भी हो, जिसके आगे जब आँखें भर आये तो वो ना रोये, जिससे कुछ भी कहना और कह कर भूल जाना आसान हो.

एक कागज़ पे ढेर सारे नाम लिखे. उन्हें दोस्तों, रिश्तेदारों, परिचितों जैसी कैटेगिरी में बांटा. फिर पेंसिल चबाते हुए सोचा परिचितों के सामने दिल उड़ेलना जैसी बेवकूफी नहीं करनी चाहिए. रिश्तेदारों और दोस्तों के नाम भी एक एक कर कटते गए, कुछ को मेरी नहीं सुननी और कुछ को मैं अपनी सुना के दुखी नहीं करना चाहती, तो लो बचा  रह गया ख़ाली कागज़ और सारी परेशानियां मेरे पास. फ्यूचर पता नहीं क्या है फिर भी फ्यूचर प्लान कर रही हूँ रात-रात जाग के. खुली आँखों से सपने देखने जैसा मीठा कुछ नहीं होता. जहाँ मैं अपनी ज़िन्दगी रिवाइंड करती हूँ, कुछ पलों को जितनी बार मन करे उतनी बार जीती हूँ, सुखद फ्यूचर निहारती हूँ और एक दिन सब ठीक हो जाएगा कह कर आँखें मूँद सोने की कोशिश करती हूँ.

                                                                               ना पेंटिंग कर रही हूँ , ना लिख रही हूँ और ना ही कुछ पढने में मन लगा पा रही हूँ. स्कूल के  बच्चो,  जिनके एग्जाम सर पे हों, की तरह किताब खोल के गोद में रख लेती हूँ और आँखें पन्नों में बींध देती हूँ फिर भी कुछ नहीं दीखता. अलबत्ता वो सब जरुर याद आता है जो नहीं आना चाहिए. अजीब कैफियत हो चली है.

                                                      मजाज़ के इलावा और कौन  है जो सहारा दे सके

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ 
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ 
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
                                                                               

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