Wednesday 8 April 2015

अक्सर ही हम अपने आस-पास से खुद को जोड़ कर यादें पैदा कर लेते हैं और ये सब इतने सहज ढंग से होता है की यादों का इक्कट्ठा होना पता भी नहीं चलता. असहज तब लगता है जब किसी जगह, किसी सड़क से कोई याद न जुडी हो. एक शहर पीछे छूट गया कुछ ऐसे ही बिना किसी याद के. किसी जगह दो साल रहना और चलते समय उसकी याद से खाली होना मुझे अचंभित करता है. किसी शहर के एक घर में बिठाये हुए दो साल .... उन दो सालों में काफी कुछ हुआ ,काफी कुछ किया, क्या ये याद है? नहीं, मेरे पास एक भी ऐसी याद नहीं जिसे चुप बैठ कर सोचा जाएइस शहर ने मेरे हाथों में मेरी किताब दी तो लोगों पर भरोसा करने की आदत को छोड़ने की सलाह भी दी, . इस शहर में ज़िन्दगी ने एक नया रंग दिखाया.
                                                     अब  नया शहर नए कायदे क़ानून और इस शहर में अपने लिए थोड़ी सी जगह की जद्दोजहद। दोस्त आलोक ने कहा न्यू लाइफ न्यू चैलेंजेज एन्जॉय ईट। बहुत सुकून देने वाले शब्द थे। जब से ये न्यू लाइफ का चेहरा देखा है तब से हर किसी ने सिर्फ लेक्चर ही दिया है  या ये अहसास कराया है की कुछ भी करके मुझे वापस उसी ज़िन्दगी में लौट जाना चाहिए। सूरज का कोई उत्तराधिकारी नहीं हो सकता ये सच है तो वहीँ ये सच भी है की एक तारा अपनी रौशनी से उम्मीद  की एक किरण तो दिखा ही सकता है। अलोक के शब्दों ने वही काम किया है। बड़े से बंद गेट के एक तरफ खड़े हो कर जाते हुए बेटे को देखने के लिए हिम्मत चाहिए और मुझे नहीं लगता की दुनिया में कोई ऐसी माँ होगी जिसमे ये हिम्मत हो। और जब पता हो की अगले महीने दी गई एक तारीख पर आप सिर्फ  फोन पे बात कर सकते हैं और मुलाक़ात की फिलहाल कोई सूरत नहीं तो आँधियों को उदासीनता के साथ देखना और उनसे गुज़र जाना सहज लगने लगता है. 
                                                                       ज़िन्दगी जब उलटी दिशा की तरफ चल पड़े तो इस बदलाव को सहज रूप से लेने या कहना चाहिए की इन हालात में मुस्कुराने की हिम्मत बच्चों में शायद ज्यादा होती है। उसने मेरे काँधे पे हाथ रख कर कहा रो मत मैं जेल में नहीं हूँ और जो तारीख है उसपे फोन कर लेना, हिम्मत रखो मैं जल्दी ही आऊंगा।शान्ति से आये हुए तूफ़ान बहुत गहरे निशान छोड़ते हैं। नकाबों में पड़ती दरारें," हमने तो पहले ही कहा" था सरीखी मुस्कुराहटें अब हौसले का काम करती हैं।
                                                                  पता नहीं क्या खाया होगा, कैसे खाया होगा, उसकी पसंद का कुछ बना भी होगा या नहीं, रात में ठण्ड तो नहीं लगी होगी, ढेर सारे सवाल हैं और जवाब एक भी नहीं. जानती हूँ सेफ हाथों में है फिर भी सवाल अपनी जगह कायम हैं और मैं जवाब की अधिकारी नहीं. 
                                                                              ईश्वर और दोस्तों ने हाथ थामा हुआ है और उम्मीद पूरी होने की उम्मीद में जिए जा रही हूँ की एक दिन सब ठीक हो जायेगा , उस दिन के इंतज़ार में उम्र और अहसास सब रुके हैं.....
                        सांसें छोटी-छोटी सेवइयों की तरह होती हैं खट से टूटने वाली, घर के बाहर बैठी उस एक सीढ़ी से लेकर उस बंद दरवाज़े तक की एक साँस उधार चाहिए फिर सब ठीक हो जायेगा....
                                                                                 

2 comments:

  1. bahut khub!

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  2. आप है न सूरज की उत्तराधिकारी

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