Wednesday 13 November 2013

खतों से , तस्वीरों से  निकलती एक पुरानी हंसी कितना हल्का कर देती है हमें ,  और वहीं जमीन पर पाँव फैलाए सामान के ढेर के

बीच कहकहों को तलाशने लग जाते हैं , सर्दी ,गर्मी ,बरसात  हर  मौसम इनके बिना ना होने जैसा लगता है , चाय  का प्याला

 हथेलियों में लो तो जब तक वो यादों से लिपटा  न हो तो उसकी गरमाई का अहसास हथेलियों से होकर सीने में उतरता ही नहीं।
                                                              कई बार छत पर  चाय का प्याला  हाथ में लेते ही लगता
है  किसी  ने पीछे से आ कर  काँधों  पे शाल डाल  दी ,हम हँस  कर पीछे मुड़ पड़ते हैं और अपनी ही साँसों की गरमाई से आँखों में

 धुआँ  सा छा  जाता है ,सामने की कुर्सी कभी खाली लगी ही नही,  वो मुस्कुराहट ,वो  गुनगुनाहट रूह में अभी तक महफूज़ है.


                              
                                                                                          
                                                                                                   सुना था सदियाँ गुजर जाती हैं और लम्हे सारी उम्र  खुद में कैद अक्सर पाजेब के घुंघरुओं की तरह छन  से बज उठते हैं ,   अब  तो आदत सी हो गई है,  कैसे हर छोटी - छोटी, गैर - मामूली  सी चीज़ भी आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाती है ,नींबू  हाथ में लेते ही आवाज़ सी आती है --------भई नींबू -पानी पिला दो और सुनो जरा  नमकीन ही बनाना शक्कर ज्यादा ना डालना ,बड़ा मन करता है चिलचिलाती धूप  में उस शहर के उस दरवाज़े पे दस्तक दे के पूछने का तुम अब भी उतना ही नमकीन नींबू -पानी पीते हो या ये पसंद भी बदल गई है . पता नहीं कोई मुझसे रूठ गया या मैं ही सबसे रूठ गई ,ये रूठना-मनाना कब अबोला हो गया ध्यान ही नहीं।

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