Monday 8 September 2014





प्रीत
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कैफ़े कॉफ़ी डे के खुशनुमा से माहौल में बैठने के लिए मेरी निगाहें कोई

खाली कुर्सी तलाश रही थी , कुछ ही सेकंड में निगाहों से कितना कुछ गुजर

गया, वो कोने वाली चेयर पर बैठा हुआ एक नौजवान जोड़ा , लड़की ने बड़ी

बेफिक्री से अपना बायाँ पैर सामने रखी टेबल पर रखा था और वो अपने साथी को

फोन में कुछ दिखा रही थी, दीवार से लगी हुई कुर्सियों पर कुछ महिलाएं

बैठी थी शायद किसी किटी की सदस्य थी या शौपिंग कर के लौट रही थी,

हंसते-खिलखिलाते , बातों में मशगूल लोगो से निगाह फिसलते हुए पीछे कोने

में कांच की दीवार से लगी हुई एक टेबल पर पड़ी,वो अकेली बैठी हुई अपने

आस-पास के शोर से कोसो दूर कप की गोलाई पर उंगलियाँ फिरा रही थी. लगा शायद किसी के इंतज़ार में वक़्त नाप रही है, कप की गोलाई पर उसकी आहिस्ता घूमती उँगलियों और उठती भाप को देखती रही, ऐसा ही तो होता है न , कुछ भी कर लो ज़िन्दगी का सिर हाथ ही नहीं आता , कुछ बातें , कुछ लम्हे हमेशा दो कदम आगे ही जा कर रुकते हैं।   उसके सामने की खाली कुर्सी आमंत्रण देती सी लगी. एक पल हिचकने के बाद मैंने

सोचा की पूछने में हर्ज़ ही क्या है , उसके साथी के आते ही मैं उठ जाउंगी

और एक कॉफ़ी पीने में वक़्त ही कितना लगता है. मन ही मन ये सब बुदबुदाते

हुए मैं उसकी तरफ बढ़ गई.

" मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?" पास जाकर मैंने सपाट स्वर में कहा
टेबल पर कोहनी रखे हथेलियों पर ठुड्डी टिकाये उसने मेरी तरफ देखा , उसकी

गहरी आँखों और लम्बी पलकों को देख मैं दो सेकंड के लिए अवाक् रह गई, मुंह

से बोल नहीं फूटा. उसने भी आँखों से ही बैठने का इशारा कर दिया,  बैठते

हुए मैंने कहा -"जैसे ही आपके मित्र आयेंगे मैं उठ जाउंगी"

कॉफी का घूँट लेते हुए उसने कहा   "नहीं, नहीं आप आराम से बैठें , कोई नहीं आने वाला", उसके शब्दो में एक निश्चिन्तता थी जिसने मुझे थोड़ा सा असहज कर दिया। उसे पता था की कोई नहीं आने वाला फिर भी वो बार बार दरवाज़े की तरफ देख रही थी।   अपने बैग्स मैंने कुर्सी की बगल में ज़मीन पर रखे और बैठते हुए एक बार फिर उसकी तरफ देखा, उससे पूछने के लिए मन में ढेरों सवाल आ रहे थे , बात करने की जबरदस्त इच्छा हो रही थी, लेकिन उसकी चुप्पी उसके शब्दों से होती हुई टेबल तक पसरी हुई थी।   सिल्क रंग की साड़ी पर चौड़ा ऑरेंज कलर का बॉर्डर , पल्लू लापरवाही से काँधे पर डाला हुआ,गर्दन को छूता जूडा और कोई जेवर नहीं, बिंदी तक नहीं अलबत्ता एक कलाई में घड़ी जरुर थी. उसकी पतली नाज़ुक सी नाक में अगर एक लौंग होती तो ? और काली भौहों के बीच लाल बिंदी कितनी अच्छी लगती. उसकी हथेली उसके एक तरफ को झुके हुए सर का सहारा बनी हुई थी और उसकी निगाहें दरवाज़े पर कुछ तलाश रही थी। उसके मग  के बगल में पेपर नैपकिन से बनी नाव रखी थी , बाहर बारिश नहीं हो रही थी, फिर भी बारिश के पानी में तैरती नाव के ख्याल भर से मैं मुस्कुरा उठी।उसे सोच में गुम देख मैंने भी इयरफोन कान में लगा फोन ऑन कर लिया, अचानक बाँह पर रखे  एक स्पर्श ने मेरी आँखें ऊपर उठा दी,
"एक किस्सा सुनेंगी"? उसका स्वर सुन कर चौंक उठी मैं। पसरी हुई चुप्पियाँ ऐसे भी बोलती हैं? कुछ जवाब दे पाऊँ इस से पहले वो उठ गई , कॉफी ले कर आती हूँ का धीमा स्वर मुझे थमा कर।
कॉफी के मग  के ऊपर से झाँकती उसकी आँखें , नहीं उदास तो नहीं थी , मरी हुई थी वो आँखें। किस्सा सुन कर आपके मन में कोई सवाल आये तो पूछियेगा जरूर लेकिन जवाब की उम्मीद के बिना , उसने मुस्कराहट पर कॉफी का घूँट रखते  हुए  कहा।  जाने उसने मेरे चेहरे पर क्या देखा की हलके से हँस पड़ी वो , जहाँ उसकी हँसी खत्म होती थी वहां उसने एक साँस भरी और एक सवाल मैंने गले में ही गटक लिया। शायद हर किसी को किसी अजाने से कुछ बाँटना आसान लगता है।                                                                                                                                                              उसने बोलना शुरू किया और मैंने उन शब्दों के मौसम को महसूस करना। 
उस दिन ना तो बारिश हो रही थी और ना ही तेज़ धूप थी , तारीखें मुझे याद नहीं रहती और महिना कोई भी हो अक्टूबर या जून फर्क क्या पड़ता है. उस दिन का वो पल बेहद खूबसूरत हो सकता था अगर प्रीत की कैफियत होती ध्यान देने की. जब हम खुश होते हैं, हंसी से लबरेज़ तो मौसम भी आपके साथ चहक उठाता है, है न! उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे अपनी बात के लिए मेरी हामी चाहती हो।   उसके किस्से से ज्यादा दिलचस्पी मुझे उसमे हो गई थी. उसका धीमी आवाज़ में रुक-रुक कर सुनाना ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझे नहीं बल्कि खुद को ही वो किस्सा सुना रही हो. कागज़ की नाव से खेलते हुए वो सोच में गुम कह रही थी, "बड़ा अजीब सा दिन था वो प्रीत के लिए , प्रीत ने सुब्बू को इसी सीसीडी में बुलाया था. देखो न मुझे तो ये भी नहीं पता की वो कहाँ बैठे थे, किस चेयर पर, उसने आस-पास निगाह दौडाते हुए कहा. लेकिन जहाँ भी बैठे थे वहां धूप का एक टुकड़ा प्रीत के चेहरे को एक अलग रंग दे रहा था.

सुब्बू एकटक प्रीत को देखता रहा," तो तुम ये कहना चाहती हो की तुम्हारे पास ३००० रुपये भी नहीं हैं?

"किसने कहा की नहीं हैं, हैं बिलकुल हैं लेकिन वो मेरे नहीं रोहन के हैं."प्रीत ने स्थिर मन और शांत स्वर में कहा .
"डोंट बी स्टुपिड यार , तुम्हारी शादी को सिर्फ एक साल हुआ है और तुम्हारा

ईगो आने लगा इस रिश्ते में ".




"नहीं, कोई ईगो विगो नहीं है और शादी को सिर्फ एक साल नहीं हुआ बल्कि एक

साल हुए अभी सिर्फ तीन ही दिन हुए हैं" मुस्कुराते हुए प्रीत ने कहा.




सुब्बू कभी-कभी चिढ जाता है प्रीत की किसी भी सीरियस बात को मजाक में

उड़ाने की इस आदत से.




"मैं सीरियस हूँ प्रीत"




"मैं भी" प्रीत ने बेपरवाही से दो लफ्ज़ उछाल दिए .




"रोहन कहाँ है?"




"दिल्ली गया हुआ है , कल आ जायेगा". प्रीत पेपर नैपकिन से नाव बनाने में व्यस्त थी




कुछ तो है जो बदल गया है लेकिन क्या सुब्बू उस बदलाव को महसूस तो कर रहा

था लेकिन समझ नहीं पा रहा था. तीन दिन पहले ही तो मिला था वो प्रीत से ,

उसकी एनिवर्सरी पार्टी में, केक काटती प्रीत, फूंक मार कैंडल बुझाती

प्रीत, खिलखिलाती प्रीत, एक अच्छे होस्ट की तरह सबके खाने-पीने की परवाह

करती प्रीत, और आज ? सुब्बू ने प्रीत की तरफ देखा , बेपरवाह दिखने की

कोशिश सी करती  दिख रही थी प्रीत  उसे आज।
हुआ क्या है ? कुछ बोलोगी ?
कुछ नहीं, सब ठीक है।
चुप हो आज बहुत.
नहीं तो
प्रीत की चुप ने परेशान कर दिया सुब्बू को , वो जानता था ज़िद्दी है प्रीत , अगर उसने सोच लिया है की नहीं बोलेगी तो ब्रम्हा भी उसे नहीं बुलवा सकते।  
 "अगर कोई प्रॉब्लम है तो मैं बात करू रोहन से?"
"थैंक्स, बट  नो थैंक्स, चलती हूँ,काफी देर हो गई है", अपना बैग उठाती हुई प्रीत खड़ी हो गई , सुब्बू हडबडा गया,अरे!" रुको तो सही, बैठो, बात तो करो"

"क्या बात करू सुब्बू, मुझे जो कहना था, कह दिया मैंने और कुछ है नहीं कहने को।  बिना वजह पूछे दे सकते हो तो दे दो"
सुब्बू देख रहा था प्रीत को , उसके आधे चेहरे पर पड़ती धूप ने उसकी आँखों

की रंगत बदल दी थी शायद, प्रीत की हमेशा की पनीली आखें क्यूँ आज सुब्बू को सूखी सी लग रही थी, या फिर उसे ही कुछ ग़लतफहमी हो रही है ,प्रीत की तरफ देखते हुए सुब्बू ने सोचा।
जानती हूँ तुम्हे मेरी फ़िक्र है लेकिन यकीन जानो सब ठीक है।
प्रीत को मुस्कुराते हुए सुब्बू देख रहा था , इस मुस्कराहट को वो भेद नहीं पायेगा , कितनी भी कोशिश कर ले प्रीत उसे कोई सिरा  नहीं पकड़ाने वाली।  अच्छी तरह जानता है वो प्रीत को




"चलो"




"कहाँ?"




"अब इस वक़्त मेरे पास इतना कैश तो है नहीं ए टी एम् से निकाल के देता हूँ"




पैसे लेते हुए प्रीत ने कहा- "याद रखना, मैं ये उधार ले रही हूँ, कब तक लौटा

पाउंगी नहीं पता लेकिन लौटाऊंगी जरुर".




"तुम भी हद्द करती हो यार , उधार की बात ही कहाँ से आई."




"नहीं सुब्बू अगर तुम वापस नहीं लोगे तो मुझे नहीं चाहिए."




प्रीत की गहरी खामोश आवाज़ सुन कर सुब्बू धीरे से " ठीक है" ही कह सका.

.सुब्बू से विदा ले नोटों को मुट्ठी में दबाये प्रीत ऑटो में बैठ गई,

सुब्बू चुप-चाप उसे जाता हुआ देखता रहा, उसे प्रीत की आदत पता है वो कभी

पलट कर नहीं देखती , कोई उसे विदा करने के लिए खड़ा है ये जानते हुए भी नहीं।

बंद मुट्ठी को सीने से लगाये प्रीत ईश्वर से प्रार्थना करना चाहती थी

लेकिन क्या बोले वो ईश्वर से , क्या चाहती है वो , प्रीत को कुछ समझ नहीं आ रहा था।  दरवाज़े का ताला खोलने से पहले प्रीत ठिठक गई, ये घर उसका ही है इस बात का यकीन खुद को दिलाना बहुत

जरुरी हो गया था।  गहरी साँस के साथ   एक बार मुट्ठी में दबे रुपयों की ओर देखा और

ताला खोल अन्दर आ गई. उसे कल की तैयारी करनी थी, कल रोहन आ रहा था.




*****

"उन रुपयों की क्या.....". उसकी ठंडी निगाहों ने मेरे शब्दों को तालू में

ही जमा दिया. हम दोनों को ही संभलने में दो पल का वक़्त लगा और फिर वो

मुझे खींच ले गई अपने शब्दों से से रोहन और प्रीत के घर में.




*****







"क्या बात है! गजब ढा रही हो आज तो" रोहन ने दरवाज़ा खुलते ही कहा.




आज प्रीत ने बहुत वक़्त दिया था रोहन की पसंद को, रोहन की पसंद की सुनहरे

किनारे वाली हल्की नीली साड़ी, खुले बाल , हाथ भर चूड़ियां, कमर में लटकता

बड़ा सा चाबी का गुच्छा, उसकी पसंद का श्रृंगार, रोहन की एक-एक पसंद का

ध्यान रखा था आज प्रीत ने .रोहन की तारीफ से मुस्कुरा उठी प्रीत .




"कैसा रहा तुम्हारा टूर , चाय लाऊं? हाथ मुंह धो लो , थक गए होगे न, कितनी सारी बातें

एक ही सांस में कह गई प्रीत , लगा पानी में दूर-दूर पड़े पत्थरों पर पैर

रख पार कर रही है .




"हाँ भई चाय तो पिला ही दो थक गया हूँ"




"अभी लाई"




" और सुनाओ क्या किया तुमने इन चार दिनों में"




"कुछ ख़ास नहीं , एक मिनट अभी आई" कहती हुई प्रीत तुरंत ही लौट भी आई।  चाय के प्याले के साथ प्रीत ने ३००० रुपये रोहन को पकडाते हुए कहा " ये लो मेरी तीन रातों की कमाई"




"मतलब क्या है तुम्हारा , क्या बोल रही हो तुम पता भी है तुम्हे" , अवाक रह गया रोहन। 




"सही सुना है तुमने , मेरी तीन रातों की कमाई" , प्रीत सपाट चेहरा लिए हुए कह रही थी।  लम्हा भर पहले की प्रीत रोहन को सदियों पुरानी बात लग रही थी।  प्रीत के आगे बढे हुए हाथ में रुपये थे , उन रुपयों से ज्यादा प्रीत का चेहरा रोहन को कंपकंपा रहा था।

"अगर ये मज़ाक है तो बहुत ही भद्दा मजाक है ये प्रीत" , रोहन ने गुस्सा करने की भरसक कोशिश की लेकिन अजाने डर ने उसे पकड़ लिया।

"नहीं, कोई मजाक नहीं , तुमने ही तो उस दिन कहा था" प्रीत का स्वर अभी भी शांत था .




"क्या कहा था , कब कहा था , कहना क्या चाहती हो तुम"




"एनिवर्सरी वाली रात तुमने ही तो कहा था की मैं बिस्तर में ऐसी हूँ की एक

रात के पांच रुपये भी नहीं कमा सकती"




"वो तो मैंने यूँ ही मजाक में ..... " स्तब्ध बैठा रह गया रोहन। अपनी आवाज़ रोहन खुद ही नहीं पहचान पा रहा था।

प्रीत ने चाय के बिखरे कप के टुकड़े समेटे और रोहन को अनसुना कर पलट गई .

किचन तक जाते हुए उसके अधरों पर एक नन्ही सी भीगी मुस्कान थी.




मैं भी तो स्तब्ध बैठी रह गई थी, ये किस्सा था? कॉफ़ी की गर्माहट भी

हथेलियों में जमी बर्फ पिघला नहीं पा रही थी .

वो मुस्कुरा उठी," चलती हूँ" उसने खड़े होते हुए कहा




"तो क्या इसीलिए अब आप कोई श्रृंगार कोई जेवर नहीं पहनती" , पूछते ही लगा

क्या बचकाना सवाल था, कहीं मैं उसके ज़ख्म तो नहीं कुरेद रही थी .




वो हँस पड़ी, कैसी विलक्षण हंसी थी, अगर गौरा पन्त ने सुनी होती वो हंसी तो शायद उन्हें भी सोचना पड़ जाता उस हंसी को चित्रित करने में. कुछ कुछ उगते सूरज में अध्यात्म में डूबी चिड़िया की आवाज़ जैसा? नहीं, कुछ और ही था उस हंसी में. जिन्होंने गंगा किनारे भोर में पंडित शिव कुमार शर्मा का

संतूर और हरी प्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी सामने बैठ के सुनी है वही समझ

सकते हैं उस हँसी को .




अरे! नहीं, नहीं मेरे महबूब का कहना है की मेरी खूबसूरती को जेवरों की जरुरत

नहीं", हँसी के बीच ही उसने कहा.




"महबूब ? मतलब ये घटना ...." मेरा सवाल उसकी साँस भर- भर ली जाती हुई हँसी में अधूरा ही रह गया.




"मतलब का तो कुछ नहीं पता" कहते हुए रहस्यमई मुस्कान ओढ़े वो चली गई और मैं बस उसे

जाता देखती रही, जानती थी वो मुड कर नहीं देखेगी , बस जानती थी, कैसे

जानती थी पता नहीं.

*******




उस सड़क पर कम ही जाना होता है लेकिन जब भी कैफ़े कॉफ़ी डे के आगे से निकलती

हूँ तो अन्दर झाँकने का लोभ संवरण नहीं कर पाती, शायद वो मुझे एक बार फिर

मिल जाए और अबकी बार मिली तो उसका नाम जरुर पूछूंगी.

























( painting Australian artist Loui Jover की है)

6 comments:

  1. भावपूरण कहानी .तुम बहुत अच्चा लिखती हो हमेशा इनबॉक्स लिंक दिया करो जब भी नयी कहानी लिखा करो

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  2. बेहतरीन, जैसा खूबसूरत वर्णन आपने कॉफ़ी शॉप और किस्से सुनाने वाली का किया है तारीफ के काबिल है। बहुत दिनों बाद कोई लज़ीज़ कहानी पढ़ी

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  3. सच बहुत ही बेहतरीन कहानी है बस पढ़ते ही चली गयी...
    बहुत बढ़िया...
    :-)

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  4. Bas, CCD jane ki taiyari me hoon. Koi coffee pilane wala/wali ho to sone pe suhaga hoga. Ummid pe duniya qayam hai. By the way, very nice.

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