Thursday 15 January 2015






मुझे ख़त लिखने नहीं आते और ना ही आता है शिकायतें करना, आता है तो बस हर पल , हर क्षण तुम्हे जीना. प्रतीक्षा में आसान लगता है तुम्हे गढ़ लेना, बिना देखे तुम्हे महसूस करना . इससे ज्यादा की न जरुरत है और न ही इच्छा.




भीगी आँखों और हँसती आवाज़ के बीच, दोनों हथेलियों की लकीरों को जोड़ते ,बीते समय को होंठों के किनारे पे अटका, जब तुमने कहा की आज बेहद खुश हो तुम तो सच जानो इससे ज्यादा सुकून देने वाले शब्द इस और उस दोनों ही दुनिया में न हैं और न ही हो सकते हैं।

बिल्कुल भी अजीब नहीं लगता की तुमसे बात करते हुए याद करती हूँ तुम्हे बेतरह.










तुम्हारे लिए ऐसा कोई शब्द गढ़ ही नहीं पाई आज तक जो मेरी सोच, मेरे मन, को परिभाषित कर सके.













तुम्हारे सामने बैठ देखना तुम्हें वो सब पढ़ते हुए जो मैंने तुम्हारे लिए लिखा ।

तुम्हारा मुस्कुराना और कहना "कविताएं समझ नहीं आती मुझे"।

लेकिन तुम्हारी आँखें ,तुम्हारा स्पर्श ,कह उठता है की तुम मेरे शब्दों को नहीं सिर्फ और सिर्फ मुझे पढ़ना चाहते हो।

तुम्हारे सामने बैठ के उन शब्दों को मुट्ठियों में भरना जो कभी लिख नहीं पाउंगी।

कलाई में बंधे काले धागे के नीचे एक उंगली डाल तुमने खींचा था और मेरी मुट्ठी खुल गई थी, खुली हथेली पे जोर से हाथ मार तुमने वो सारे बीज उड़ा दिए थे जो अब लौट कर तुम्हारी जेबों में बैठ जाते हैं और तुम मुट्ठियाँ भींच लेते हो।

तुमने कहा- जाओ , तुम्हारी आँखों ने कहा-मत सुनो मेरी । कैसा वरदान है न हमारी मुहब्बत को की जब-जब भी कोई आधा अक्षर लिखने को नज़र झुकाएगा हम जी जायेंगे. आओ इस श्राप को साझी ओक से पी लें।

7 जनवरी 2015 का एक लम्हा , जिसे वहीँ रोक दिया है , जिसे न बीतने देना चाहती हूँ और ना महसूस करना और न ही जीना।
रीत गया तो?













दम घुट रहा है, सांस लेने में तकलीफ हो रही है। नहीं, इसमें तुम्हारी याद का कोई कुसूर नहीं.
पिघलती पुतलियों के सारे रंग सूख चले हैं । उंगलियां जिस तरह तुम्हे उकेरना चाहती हैं रंगों को वो मंज़ूर नहीं और रंगों की चाहत को उँगलियों ने नकार दिया है। तुमसे न कोई वादा कभी लिया और न ही दिया फिर भी हमने होंठों पे आये हर आँसू और आँखों में आये हर शब्द को निभाया । शायद नहीं यकीनन मैं आज तक उस लम्हे को जी रही हूँ जिसमे ताकत है की वो मुझे एक साथ ख़ुशी और दुःख दोनों से नवाज़ सके।

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