Saturday 17 January 2015



अक्सर बहुत कुछ भूलने लगी हूँ मैं अब,




भूल जाती हूँ तुम्हारे खतों को वापस वापस पढ़ना




बैठी रहती हूँ इंतज़ार में धैर्य से भरकर




घुटने और ठुड्डी जोड़ कमर मोड़ लगा लेती हूँ दीवार से




पैरों में होती झुनझुनी के बीच भूल जाती हूँ बैठी रही उम्र को उठाना अक्सर ,


देखती हूँ गोदी में पड़े निढाल से कुहनियों तक जमे तुम्हारे भीगे स्पर्श को,

अब अक्सर आसान लगता है
गीले , जमे, सूखे , पिघले, कैसे भी निशान को भूल जाना

इसी तरह कदम ब कदम चलते हुए एक दिन भूल जाउंगी वापस लौटना
.........................उम्मीद है।

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