Saturday 28 September 2013

तुम्हारी एक हलकी सी आहट
और मुस्कराहट पाँव पसार कर बैठ गई
हमने साथ में बरसों के चावल बीने
और
दिनों के कंकर उठा
खिड़की से बाहर फेंके ,
 बनफशा  के फूलों सी
 रात की स्याही में
  सपनो की नावें खेई
पलकों पे धरी ओस की बूंदों को
तारों की धूप  से थपक सुला दिया ,
        अब
बेतरतीब सी बैठी हूँ
आओ
सिखा  जाओ मुझे भी 
हुनर
वापस लौट पड़ने का !!



1 comment:

  1. बनफशा के फूलों सी.........

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