Monday 20 January 2014

 
घुटनों पर कोहनी टिकाये ,
 उंगलियाँ जोड़े ,बैठे हुए
रेत पर खींचे थे कुछ खाने ,
,
 
 सहस्त्रों सभ्यताओं से भागे शब्दों से
 फूंक उड़ाई थी ,
एक टेढ़ी सी   हंसी ,

चुभते से लम्हे
गुजरे थे ,
हलक में अटकी याद के
रंग को गहरा करते हुए ,
 
बेबसी से नाराजगी के बीच ,
कुछ अधूरी ख्वाहिशों ने ,
पूरी होने की ख्वाहिश
 बिसराई थी ,
 
बचा रह गया था ,
बेहिसाब फैले , पसरे
 सीले से दिनों की ,
काली सी स्लेट पर
 एक लफ्ज़
 
 काश .....
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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