Wednesday 8 January 2014

 बेहिसाब याद के लम्हे से निकल ,
अजाने चेहरों की भीड़
में दौड़ते ,
सपाट मैदानों में भागते ,
साँस भर
सीढियाँ चढ़ते -उतरते ,
सुने हुए एक शब्द का
चेहरा तलाशते ,
खींची थी
हथेली पर
कुछ आड़ी तिरछी सी रेखाएं ,
एक रात ,
जाने कौन सी रात ,
चुक गई थी ढिबरी ,
बावड़ी किनारे औंधी पड़ी हुई ,
चातक ने रख दी थी
प्यास उधार
आँखों में ,


आज ,
मैंने खुद को अपना  पता बताया है !

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