Tuesday 3 December 2013

उम्मीदों के पंख पखेरू उड़ जाते हैं
नीले गहरे आसमान में ,
चुप सी पड़ जाती है उसकी पसलियों में ,
दुहरे कंधे लिए बुहार डालती है अपना आप ,
खींच निकाल तलवों से किरचें ,
फेंक आती है सड़क के दूसरी तरफ
बुरुंश की झाड़ियों के पीछे ,
सब कुछ वापस कर लिया है
अब की बार उसने ,
किसी भी मौसम के गुजरते रहने के लिए ,
खत्म हो ही जाती है
एक दिन
उम्र कैद भी !!!

1 comment:

  1. उम्मीद का सिंचन
    पौध को सींचने सा है

    कई बार कुम्हलता भी है
    फूलता और फलता भी है
    फिर बीज को पसारकर
    देह-मुक्त हो जाता है

    सृजन-श्रृंखला जारी रहती है
    इन छोटी-छोटी लड़ियों से

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