Sunday 29 December 2013

...दरवाज़े से  ,
जमीन का साथ देती
 झिर्री से गुजरी ......
.एक चिट्ठी ,
 अधुरा सा अपनापन लिए हुए ,
तैरे थे एकांत ओढ़े शब्द इति कहने के बाद भी ,
अंतस में रक्खे   एक चिंगार  ने तापे थे  बीते अनकहे से  बरस ,
सिरहाने रक्खी नीम की पत्तियों ने सेके थे कुछ कुहासे ,
 पारन्ति के फूलों को ज़बान  पर घुलाती ,
  अजनबियत का गिलाफ ओढ़े
रिश्तों को,
काढ़ा सा पीती,
कसांद्रा का शाप कांधों  पर उठाये
ढो रही हूँ अग्यातवास .

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