Monday 3 November 2014


अक्षरों को जीती
थम गई थी उंगलियाँ,
और
औचक निगाहों से देखा था तुमने,
दरवाज़े पर खड़े हो कर
गलियारे में घूमती अपने नाम की पुकार को,
कॉफ़ी का मग हाथों से ले
घूँट-घूँट पीते हुए मुस्कराहट
तुमे सांस-सांस कहा था
सुबह-ए-बनारस!

इस याद का एक टुकड़ा भर लिया है बाहों में,
जब कभी आओ
और
चाहो बंद पड़े किवाड़ खोलना,
तो
गढ़ लेना एक चाबी,
उसी याद का एक टुकड़ा बिठा आई हूँ,
जब लगोगे उसके गले
तो, इसी दुनिया के दो छोरों पर,
आधी-आधी मुस्कान जीते दो लोग
हँस पड़ेंगे।

( फोटो उस घर के एक हिस्से की है जहाँ अभी सिर्फ मैं हूँ , यकीनन कुछ दिनों बाद तुम भी होओगे)

Photo: अक्षरों को जीती
थम गई थी उंगलियाँ,
और 
औचक निगाहों से देखा था तुमने,
दरवाज़े पर खड़े हो कर
गलियारे में घूमती अपने नाम की पुकार को,
कॉफ़ी का मग हाथों से ले
घूँट-घूँट पीते हुए मुस्कराहट
तुमे सांस-सांस कहा था
सुबह-ए-बनारस!

इस याद का एक टुकड़ा भर लिया है बाहों में ताला लगाते हुए,
जब कभी आओ 
और
चाहो बंद पड़े किवाड़ खोलना,
तो
गढ़ लेना एक चाबी,
उसी याद का एक टुकड़ा बिठा आई हूँ,
जब लगोगे उसके गले
तो, इसी दुनिया के दो छोरों पर,
आधी-आधी मुस्कान जीते दो लोग
हँस पड़ेंगे।

( फोटो  उस घर के एक हिस्से की है जहाँ अभी सिर्फ मैं हूँ , यकीनन कुछ दिनों बाद तुम भी होओगे)

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