Monday 8 December 2014

खुली आँखों से जिया तुम्हारे साथ का एक खुश लम्हा...





तुम्हारे थोडा सा पीछे अधलेटी सी हूँ  और तुम पढ़ रहे हो कोई किताब , कोई कहानी कोई उपन्यास या कुछ और  बस पढ़ रहे हो और पढ़ते-पढ़ते जो अच्छा लगता है तुम सुनाते  हो मुझे , बीच -बीच में हाथ से टहोक देते हो  "सुन रही हो न " , मेरी एक छोटी सी ह म्म से आश्वस्त हो जाते हो , तिलिस्म से  जागते हैं तुम्हारे शब्द , जागती आँखों से देखते हुए ख्वाब से एक और ख्वाब में तैर जाती हूँ , बदन पर पड़े हुए तिल  की तरह उग आती है तुम्हारी आवाज़ और नाभि के भंवर से होती हुई लहू में घुल जाती है , अच्छा लगता है तुम्हारी आवाज़ में अतीत की किसी याद , किसी समर्पण , किसी बिछोह की कहानी सुनना , अच्छा लगता है तुम्हारी आवाज़ सुनना , जहाँ बैठी हूँ वहां से तुम्हारी पीठ दिखती है मन करता है हाथ रख दूं , दिखती है तुम्हारी गर्दन , तुम्हारे बाल , कभी मन क्यों नहीं किया तुम्हारे बालों  में उंगलियाँ फिराने का आश्चर्यचकित हूँ , गर्दन पर दिखता  है एक तिल जैसे संभाल रखा हो स्पर्श कोई पुराना , तुम मुड़ते हो और मुझे आँखें बंद किया हुआ पाते हो , जब भी सोचती हूँ तुम्हे आँखें अन्दर की तरफ खुल जाती हैं , तुम धीरे से मेरे सर के नीचे का तकिया ठीक करते हो मुझे आराम से लिटाने के   लिए और रख देते हो किताब वहीँ सिरहाने , मेरे सुने बिना तुम्हे भी कहाँ अच्छा  लगता है पढना .

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