Friday 12 December 2014



रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो !

हम सुखन कोई न हो , और हम जुबाँ कोई न हो !!




चली आई हूँ ऐसे ही एक शहर में जहाँ कुछ भी जाना पहचाना  नहीं दिखता. न सड़के, न पेड़, और न सड़क किनारे पसरी हुई ये बेंच ही । किसी में कोई कौतुहल नहीं मुझे जानने का, मुझ से जान पहचान बढाने का । मुझे भी कोई इच्छा ,कोई जिज्ञासा नहीं होती की उन्हें जान लूँ , एक बार छू लूँ । मुझे इस शहर में रहना ही है ये शहर जगह दे या न दे । मज़बूरी है इस शहर की भी और मेरी भी। शहर कभी किसी को बेदखल नहीं करते.इस शहर ने एक उदासीन दोस्त की तरह मुझे थोड़ी जगह दे दी . यहाँ की हर चीज़ पे एक ठण्ड सी जमी है। सब कुछ अपनी गति से होता हुआ, चलता हुआ मेरे आगे से गुज़रता जाता है और मैं हाथ बढ़ा कर उसे थामना भी नहीं चाहती। इस अजाने शहर की एक सड़क पर आ खड़ी होती हूँ। यहाँ हर चीज़ है , खूबसूरत पत्तियों वाले पेड़, बच्चों की खिलखिलाती हंसी, एक दूसरे में डूबे चेहरे, सब कुछ तो है जो हम अपने आस-पास देखना चाहते हैं. बातें हैं, हवा में ऐसी सुगंध है की सांस भर ली जाए फेफड़ों में । सब कुछ खूबसूरत । उसी शहर की उसी सड़क पर चलते हुए लगता है सड़क के आखिरी हिस्से पे आ गई हूँ । एक चेहरा दिखता है मेरी ओर  देखता हुआ । पहचान की एक भी रेखा नहीं उभरती उस चेहरे पर. नाक तीखी है या गोल समझ नहीं आता। जानने के लिए हाथ बढ़ाती हूँ तो हाथ हवा में झूल जाता है। वो अपरिचित सा चेहरा हर हाथ, हर ऊँगली की ज़द से बाहर है। पतले -पतले होंठ स्नेहसिक्त मुस्कराहट की एक महीन सी रेखा में पगे हैं. । उन होंठों की तरफ बढ़ती उँगलियों की छुअन में अपने ही होंठों को महसूस करती हूँ । पतले होंठों पे उंगलियाँ फिराते उठ कर बैठ जाती हूँ। वाकई में बैठी हूँ या सपने में उठ गई हूँ पता नहीं चलता। उस जगह हूँ जहाँ ख्वाब और हकीकत आपस में मिल जाते हैं और खूबसूरत सा सच अँजुरी में भर देते हैं की जीना और मरना दोनों गिरवी रख दिए गए हैं। जिए तो कोई किस तरह जिए और मरे तो कोई क्यों मरे।एक याद को खिसका कर दूसरी याद के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हूँ फिर भी उन्हें आपस में रलने मिलने से रोक नहीं पाती। वो जगहें तो याद आती हैं जहाँ कुछ यादो के पते मिल जाया करते थे लेकिन अब सड़कों के नाम पते भूलने लगी हूँ। उसकी तरफ कदम बढ़ाते उसे देखती भी रहती हूँ बस पहचानने की कोई कोशिश नहीं करती. भूरा सा कोट जिस पर आड़ी तिरछी काली लाइने हैं, बालों से लगता है उसे यहाँ खड़े एक उम्र गुज़र गई होगी लेकिन उस गुजरी उम्र ने चेहरे पे जाने क्यूँ कोई निशान नहीं छोड़ा. उसने कितने बरस इस सड़क पर बिठाये होंगे कहना मुश्किल है. उसके पैरो को देखने की कोशिश में कभी चमकती रेत दिखती है तो कभी कूटी हुई रोड़ियाँ . एक भरम उसके पैरों , उसके पीछे छूटे सालों को ढक रखता है. उस सड़क के आखिरी छोर पर खड़े उस आदमी ने न कुछ सुनाना चाहा न किसी अचरज को कोई जगह ही दी. पीली गुनगुनी धूप का जब समय हुआ तब उस ने मेरी बाहों में रसभेरियां भर दी। मैं उसकी तरफ देखना चाहती थी लेकिन निगाहें कहीं दूर उसे पार करते हुए देख रही थी। उससे कुछ कहना चाहती थी लेकिन होंठों ने मुस्कुरा के बस गर्दन हिला दी।वक़्त रेत घड़ी था फिर भी ठहरा हुआ, जैसे जो वो देने आया था वो मुझे मिलना ही था। रसभेरियां मेरे सपनो सी खट्टी और तुम्हारे शब्दों सी मीठी थी.। इन्हें बाँहों में लेते खूब जोर से साँस खींची और सीने में तुम्हारी महक भर गई. इन रसभेरियों का क्या करू नहीं जानती। इन्हें इसी अजाने शहर की किसी, सपनो को सुई धागे से सिलती लड़की, के लिए गहरे दबा दूं या अपने साथ ले आऊँ जब भी लौटुं इस शहर से.




ख्वाब में देखे ख्वाब उंगली में लिपटे रह जाते हैं और बेहद टीसते हैं।

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